नभ अब्र से भरा हो निहाँ चाँदनी रहे
तब जुगनुओं से ही यहाँ शबगर्दगी रहे
मन में जले जो दीप अक़ीदत का दोस्तो
उनके घरों में फिर न कभी तीरगी रहे
कटते रहे शजर और बनते रहे मकाँ
हर ही तरफ धुआँ है कहाँ आदमी रहे
आकाश में बची हुई बूँदें धनक बनीं
हमदर्द जो हों लफ़्ज़ तो यह ज़िन्दगी रहे
हर उलझनों के बाद भी ये ज़िन्दगी चली
बचपन के जैसा मन में सदा ताज़गी रहे
*गिरह
भायी नहीं हमें तो कभी चापलूसियाँ
मिलते रहे सभी से मगर अजनबी रहे(ज़नाब निदा फ़ाज़ली)
-ऋता शेखर ‘मधु’
अब्र-बादल
निहाँ- छुपी रही
शबगर्दगी-रात की पहरेदारी