चित्र गूगल से साभार |
राह को स्वेद से सींचता हुआ
रिक्शे को दम से खींचता हुआ
बाहों पर उभरी नसें लिये
वह कृशकाय, वृद्धावस्था में
रिक्शे को लिए जा रहा है
आसमान में धूप चढ़ी है
सवारी को तिरपाल से बचाता
अपना सिर गमछ से बचा रहा
हाँ, वह रिक्शा चला रहा
सवारी को बुला रहा
धमनी में बहते हुए रक्त
कभी होने लगते निःशक्त
बैठे बैठे लग जाती है झपकी
तभी काँधे पर पड़ती थपकी
“ऐ उठो, पहुँचा दो चौक पर”
सजग होता अधमुंदी आखों से
चल पड़ता है पैडल घुमाता
नसें तड़तड़ाती हैं
वह रुकता नहीं
हताश तब होता है जब
सवारी चंद सिक्कों से भी
कुछ बचा लेना चाहती है
लड़ पड़ती है उस गरीब से
तब दिख जाती है
अमानवीयता करीब से
सड़कें सूनी हैं लॉकडाउन में
अब कोई नहीं उठाता उसे
कोई पैसों की झिकझिक नहीं करता
एक टक देखता बैठा है
गाहे बेगाहे दिख जाने वालों को
पर कोई नहीं आ रहा उस ओर
वह दिहाड़ी कमाने वाला
रिक्शे पर बैठा है
सूनी निगाहें लिये
बच्चों की भूखी बाहें लिए|
@ऋता शेखर ‘मधु’