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Channel: मधुर गुँजन
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हँसते हुए पलों को रखो तुम सँभाल कर

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लफ्जों में प्रीत पालकर उनको निहाल कर
दुखती हुई रगों से कभी ना सवाल कर

मिलती रही हैं मुश्किलें जीवन की राह में
हँसते हुए पलों को रखो तुम सँभाल कर

माना तेरी हर बात पर मुझको रहा यकीं
अब जिंदगी से पूछकर तू ना बवाल कर

कहती रही हैं कुछ तो ये अमराइयाँ हमें
उनको गज़ल में ढालकर तू भी कमाल कर

जो वक्त आज बीत गया अब वो अतीत है
क्या फायदा मिलेगा उसे ही उछाल कर
-ऋता शेखर 'मधु'

रुख़ की बात को हवा जाने

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चित्र गूगल से साभार


2122 1212 22


क्वाफ़ी-आ/ रदीफ-जाने

रुख़ की बात को हवा जाने
हर दुआ को वही खुदा जाने

जो लगी ना बुझी जमाने में
इश्क की दास्ताँ वफ़ा जाने

ख़ाक में मिल रहे जनाज़े जो
क्यों नहीं दे रहे पता जाने

नेक जो भी रहे इरादों में
बाद में खुद की ही ख़ता जाने

अक्स मिलते रहेंगे किरचों में
टूट के राज आइना जाने

वक्त का करवटी इशारा था
आज तिनकों में आसरा जाने

जो रखे है गुरूर चालों में
है मुसाफ़िर वो गुमशुदा जाने

हौसले में जुनून है जिसके
गुलशनी राह खुशनुमा जाने

ख्वाब में भी वही नजर आए
दिल को क्या हो गया खुदा जाने
--ऋता शेखर ‘मधु’

कॉमन एरिया

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कॉमन एरिया

"दीदी, सीढियों पर अँधेरा क्यों है|"मोना ने अन्दर आते हुए कहा तब तक रमा ने लाइट जला दी थी|
आज बहुत दिनों बाद मोना अपनी बड़ी बहन रमा से मिलने उसकी ससुराल वाले मकान में आई थी| रमा की शादी चार भाइयों के परिवार में हुई थी| वह बड़ी थी और उसने परिवार को पूर्ण समर्पण दिया था| उस वक्त मोना वहाँ आती थी तो उसे परिवार की एकता बहुत भाती थी| फिर उसकी शादी हो गई तो वह पति के साथ विदेश चली गई | बहुत दिनों बाद वापस आई तो मन में वही तस्वीर थी| अब वहाँ पर चार तल्ले वाली मकान थी और सभी भाइयों की गृहस्थी भी अलग हो चुकी थी|
''दीदी, सबके घरों के लाइट निकल रही है और टीवी की आवाजें भी आ रही हैं| इसका अर्थ है सभी घर में ही हैं|किसी ने यहाँ पर लाइट नहीं जलाई|''

''अरी, यह तो कॉमन एरिया है न| मैं रहती तो जलाती| आज तुझे लाने सवेरे ही एयरपोर्ट चली गई थी तो कौन जलाता|''

''तो क्या यह लाइट जलाने की जिम्मेदारी सिर्फ आपकी है?''

''मोना, कॉमन और पर्सनल एरिया में फर्क समझा कर|''

दीदी का दर्द उनकी बोली में झलक ही गया| मोना रमा के कँधे पर हाथ रखकर चुपचाप उपर चढ़ने लगी|

-ऋता शेखर 'मधु'

मनमर्जी - लघुकथा

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मनमर्जी

"माँ, पिताजी, मुझे कुछ सालों के लिए विदेश जाना पड़ेगा। ऑफिस के काम से जाना है"अखिल ने एक दिन ऑफिस से आते ही कहा।


"लेकिन बेटा, जाना क्या टल नहीं सकता। तू मेरा अकेला पुत्र है और हमारी नजरों के सामने ही रहे तो हमें संतोष रहता है।"

"जाना टल सकता था माँ, किन्तु मैं क्या बोलूँ, मीरा ने जाने की जिद पकड़ रखी है।"

"उसे समझाओ, यहाँ सब एकसाथ रहते हैं तो कितना अच्छा लगता है।"

"कितना तो समझा रहा हूँ पर वो माने तब न"अखिल ने अपनी मजबूरी बताते हुए कहा।

"तब तो तुम्हे जो उचित लगे वही करो"मायूस माँ ने कहा।

अखिल ने कमरे में जाकर मीरा से भी यह बात बताई। उसके बाद वह किसी काम से बाहर चला गया।
मीरा आँखों में आंसू भरकर सास के पास गई।

"माँ जी, मैं यहीं रहना चाहती हूँ। आप अखिल से कहिये न कि न जाएँ।"यह सुनकर माँ कुछ कहना चाहती थी कि पिता ने उन्हें रोक दिया। मीरा चली गई।

"अखिल की माँ, आज मैं अपने बेटे की चालाकी और बहु की सच्चाई समझ पा रहा हूँ। पहले भी हमारी नजरों में बहु को बदनाम कर वह बहुत  मनमर्जी कर चुका है।"

तब तक अखिल वापस आ चुका था|

'बेटे अखिल, तुम निश्चिंत रहो, हम बहु को समझा लेंगे|'

'किन्तु पिता जी, वह झगड़ा करेगी|'

'वह या तुम...?'

अखिल निरुत्तर रह गया|
-ऋता शेखर "मधु"

कवि परिचय-1-गोपाल सिंह नेपाली

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गोपाल सिंह नेपाली (1911 - 1963) हिन्दी एवं नेपाली के प्रसिद्ध कवि थे। गोपालसिंह नेपाली का जन्म चम्पारन जिले के बेतिया नामक स्थान पर 11 अगस्त 1911 को कालीबाग दरबार के नेपाली महल में हुआ था। इन्होंने प्रवेशिका तक शिक्षा प्राप्त की थी|उनका मूल नाम गोपाल बहादुर सिंह था| कई पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया और फिल्मों के गीत लिखे। कविता क्षेत्र में नेपाली ने देश-प्रेम, प्रकृति-प्रेम तथा मानवीय भावनाओं का सुंदर चित्रण किया है। वे मंचों के हिट कवि थे। उन्हें "गीतों का राजकुमार"कहा जाता था।1932 में उन्होंने 'प्रभात'और 'मुरली'नाम से क्रमशः हिन्दी और अंग्रेज़ी में हस्तलिखित पत्रिकाएँ भी निकालीं।
उनकी कुछ प्रमुख कृतियाँ हैं-
उमंग (1933), पंछी (1934), रागिनी (1935), पंचमी (1942), नवीन (1944), नीलिमा (1945), हिमालय ने पुकारा (1963)
उन्होंने फ़िल्मों में लगभग 400 धार्मिक गीत लिखे।
उन्होने बम्बइया हिन्दी फिल्मों के लिये गाने भी लिखे। वे एक पत्रकार भी थे जिन्होने "रतलाम टाइम्स", चित्रपट, सुधा, एवं योगी नामक चार पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया। सन् 1962 के चीनी आक्रमन के समय उन्होने कई देशभक्तिपूर्ण गीत एवं कविताएं लिखीं जिनमें 'सावन', 'कल्पना', 'नीलिमा', 'नवीन कल्पना करो'आदि बहुत प्रसिद्ध हैं।
1963 में मात्र 52 वर्ष की उम्र में भागलपुर रेलवे स्टेशन पर उनका देहांत हुआ।
नेपाली जी बहु-आयामी थे.
निर्माता-निर्देशक के तौर पर नेपाली जी ने तीन फीचर फिल्मों - नजराना, सनसनी और खुशबू का निर्माण भी किया था.
जिन फिल्मों के लिए उन्होंने गाने लिखे वो हैं - ‘नाग पंचमी’, ‘नवरात्रि’, ‘नई राहें’, ‘जय भवानी’, ‘गजरे’, ‘नरसी भगत’
नरसी भगत में ही नेपाली जी ने "दर्शन दो घनश्याम नाथ मोरी अँखियाँ प्यासी हैं"जैसा बेहतरीन भजन लिखा था, जो हम आज भी गाते हैं.
आपकी जिन कविताओं ने लोकप्रियता की ऊँचाइयों को छुआ उनमें कुछ का जिक्र इस आलेख में करने की चेष्टा की गई है| स्कूल के पाठ्यपुस्तक में सबने बड़े चाव से यह कविता पढ़ी है|
यह लघु सरिता का बहता जल
कितना शीतल, कितना निर्मल
हिमगिरि के हिम से निकल निकल,
यह निर्मल दूध सा हिम का जल,
कर-कर निनाद कल-कल छल-छल,

तन का चंचल मन का विह्वल
यह लघु सरिता का बहता जल
ऊँचे शिखरों से उतर-उतर,
गिर-गिर, गिरि की चट्टानों पर,
कंकड़-कंकड़ पैदल चलकर,
दिन भर, रजनी भर, जीवन भर,

धोता वसुधा का अन्तस्तल
यह लघु सरिता का बहता जल

हिम के पत्थर वो पिघल पिघल,
बन गए धरा का वारि विमल,
सुख पाता जिससे पथिक विकलच
पी-पी कर अंजलि भर मृदुजल,

नित जलकर भी कितना शीतल
यह लघु सरिता का बहता जल
कितना कोमल, कितना वत्सल,
रे जननी का वह अन्तस्तल,
जिसका यह शीतल करुणा जल,
बहता रहता युग-युग अविरल,

गंगा, यमुना, सरयू निर्मल
यह लघु सरिता का बहता जल
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एक बेटी के मनोभाव को उकेर कर कवि ने अपनी उत्कृष्ट सृजनशीलता का का परिचय दिया है|यह भावपूर्ण रचना पढ़कर किस माता पिता की आँखें नम न हो जाएँ|

बाबुल तुम बगिया के तरुवर, हम तरुवर की चिड़ियाँ रे
दाना चुगते उड़ जाएँ हम, पिया मिलन की घड़ियाँ रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें, ज्यों मोती की लडियां रे
बाबुल तुम बगिया के तरुवर …….

आँखों से आँसू निकले तो पीछे तके नहीं मुड़के
घर की कन्या बन का पंछी, फिरें न डाली से उड़के
बाजी हारी हुई त्रिया की
जनम -जनम सौगात पिया की
बाबुल तुम गूंगे नैना, हम आँसू की फुलझड़ियाँ रे
उड़ जाएँ तो लौट न आएँ ज्यों मोती की लडियाँ रे

हमको सुध न जनम के पहले , अपनी कहाँ अटारी थी
आँख खुली तो नभ के नीचे , हम थे गोद तुम्हारी थी
ऐसा था वह रैन -बसेरा
जहाँ सांझ भी लगे सवेरा
बाबुल तुम गिरिराज हिमालय , हम झरनों की कड़ियाँ रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें , ज्यों मोती की लडियां रे

छितराए नौ लाख सितारे , तेरी नभ की छाया में
मंदिर -मूरत , तीरथ देखे , हमने तेरी काया में
दुःख में भी हमने सुख देखा
तुमने बस कन्या मुख देखा
बाबुल तुम कुलवंश कमल हो , हम कोमल पंखुड़ियां रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें , ज्यों मोती की लडियां रे

बचपन के भोलेपन पर जब , छिटके रंग जवानी के
प्यास प्रीति की जागी तो हम , मीन बने बिन पानी के
जनम -जनम के प्यासे नैना
चाहे नहीं कुंवारे रहना
बाबुल ढूंढ फिरो तुम हमको , हम ढूंढें बावरिया रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें , ज्यों मोती की लडियां रे

चढ़ती उमर बढ़ी तो कुल -मर्यादा से जा टकराई
पगड़ी गिरने के दर से , दुनिया जा डोली ले आई
मन रोया , गूंजी शहनाई
नयन बहे , चुनरी पहनाई
पहनाई चुनरी सुहाग की , या डाली हथकड़ियां रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें , ज्यों मोती की लडियां रे

मंत्र पढ़े सौ सदी पुराने , रीत निभाई प्रीत नहीं
तन का सौदा कर के भी तो , पाया मन का मीत नहीं
गात फूल सा , कांटे पग में
जग के लिए जिए हम जग में
बाबुल तुम पगड़ी समाज के , हम पथ की कंकरियां रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें , ज्यों मोती की लडियां रे

मांग रची आंसू के ऊपर , घूंघट गीली आँखों पर
ब्याह नाम से यह लीला ज़ाहिर करवाई लाखों पर

नेह लगा तो नैहर छूटा , पिया मिले बिछुड़ी सखियाँ
प्यार बताकर पीर मिली तो नीर बनीं फूटी अंखियाँ
हुई चलाकर चाल पुरानी
नयी जवानी पानी पानी
चली मनाने चिर वसंत में , ज्यों सावन की झाड़ियाँ रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें , ज्यों मोती की लडियां रे

देखा जो ससुराल पहुंचकर , तो दुनिया ही न्यारी थी
फूलों सा था देश हरा , पर कांटो की फुलवारी थी
कहने को सारे अपने थे
पर दिन दुपहर के सपने थे
मिली नाम पर कोमलता के , केवल नरम कांकरिया रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें , ज्यों मोती की लडियां रे

वेद-शास्त्र थे लिखे पुरुष के , मुश्किल था बचकर जाना
हारा दांव बचा लेने को , पति को परमेश्वर जाना
दुल्हन बनकर दिया जलाया
दासी बन घर बार चलाया
माँ बनकर ममता बांटी तो , महल बनी झोंपड़िया रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें , ज्यों मोती की लडियां रे

मन की सेज सुला प्रियतम को , दीप नयन का मंद किया
छुड़ा जगत से अपने को , सिंदूर बिंदु में बंद किया
जंजीरों में बाँधा तन को
त्याग -राग से साधा मन को
पंछी के उड़ जाने पर ही , खोली नयन किवाड़ियाँ रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें , ज्यों मोती की लडियां रे

जनम लिया तो जले पिता -माँ , यौवन खिला ननद -भाभी
ब्याह रचा तो जला मोहल्ला , पुत्र हुआ तो बंध्या भी
जले ह्रदय के अन्दर नारी
उस पर बाहर दुनिया सारी
मर जाने पर भी मरघट में , जल - जल उठी लकड़ियाँ रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें , ज्यों मोती की लडियां रे

जनम -जनम जग के नखरे पर , सज -धजकर जाएँ वारी
फिर भी समझे गए रात -दिन हम ताड़न के अधिकारी
पहले गए पिया जो हमसे अधम बने हम यहाँ अधम से
पहले ही हम चल बसें , तो फिर जग बाटें रेवड़ियां रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें , ज्यों मोती की लडियां रे

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स्वतंत्रता संग्राम के दौरान नारी शक्ति का आह्वान करते हुए उनकी यह कविता बहुत ओजपूर्ण है|
भाई बहन
तू चिंगारी बनकर उड़ री, जाग-जाग मैं ज्वाल बनूँ,
तू बन जा हहराती गँगा, मैं झेलम बेहाल बनूँ,
आज बसन्ती चोला तेरा, मैं भी सज लूँ लाल बनूँ,
तू भगिनी बन क्रान्ति कराली, मैं भाई विकराल बनूँ,
यहाँ न कोई राधारानी, वृन्दावन, बंशीवाला,

...तू आँगन की ज्योति बहन री, मैं घर का पहरे वाला ।

बहन प्रेम का पुतला हूँ मैं, तू ममता की गोद बनी,
मेरा जीवन क्रीड़ा-कौतुक तू प्रत्यक्ष प्रमोद भरी,
मैं भाई फूलों में भूला, मेरी बहन विनोद बनी,
भाई की गति, मति भगिनी की दोनों मंगल-मोद बनी
यह अपराध कलंक सुशीले, सारे फूल जला देना ।

जननी की जंजीर बज रही, चल तबियत बहला देना ।
भाई एक लहर बन आया, बहन नदी की धारा है,
संगम है, गँगा उमड़ी है, डूबा कूल-किनारा है,
यह उन्माद, बहन को अपना भाई एक सहारा है,
यह अलमस्ती, एक बहन ही भाई का ध्रुवतारा है,
पागल घडी, बहन-भाई है, वह आज़ाद तराना है ।
मुसीबतों से, बलिदानों से, पत्थर को समझाना है ।
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'धर्मयुग के 10 जून 1956 के अंक में प्रकाशित
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ
तू चलती है पन्ने-पन्ने, मैं लोचन-लोचन बढ़ता हूँ

मै खुली क़लम का जादूगर, तू बंद क़िताब कहानी की
मैं हँसी-ख़ुशी का सौदागर, तू रात हसीन जवानी की
तू श्याम नयन से देखे तो, मैं नील गगन में उड़ता हूँ
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ ।

तू मन के भाव मिलाती है, मेरी कविता के भावों से
मैं अपने भाव मिलाता हूँ, तेरी पलकों की छाँवों से
तू मेरी बात पकड़ती है, मैं तेरा मौन पकड़ता हूँ
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ ।

तू पृष्ठ-पृष्ठ से खेल रही, मैं पृष्ठों से आगे-आगे
तू व्यर्थ अर्थ में उलझ रही, मेरी चुप्पी उत्तर माँगे
तू ढाल बनाती पुस्तक को, मैं अपने मन से लड़ता हूँ
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ ।

तू छंदों के द्वारा जाने, मेरी उमंग के रंग-ढंग
मैं तेरी आँखों से देखूँ, अपने भविष्य का रूप-रंग
तू मन-मन मुझे बुलाती है, मैं नयना-नयना मुड़ता हूँ
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ ।

मेरी कविता के दर्पण में, जो कुछ है तेरी परछाईं
कोने में मेरा नाम छपा, तू सारी पुस्तक में छाई
देवता समझती तू मुझको, मैं तेरे पैयां पड़ता हूँ
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ ।

तेरी बातों की रिमझिम से, कानों में मिसरी घुलती है
मेरी तो पुस्तक बंद हुई, अब तेरी पुस्तक खुलती है
तू मेरे जीवन में आई, मैं जग से आज बिछड़ता हूँ
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ ।

मेरे जीवन में फूल-फूल, तेरे मन में कलियाँ-कलियाँ
रेशमी शरम में सिमट चलीं, रंगीन रात की रंगरलियाँ
चंदा डूबे, सूरज डूबे, प्राणों से प्यार जकड़ता हूँ
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ ।
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बदनाम रहे बटमार मगर, घर तो रखवालों ने लूटा
मेरी दुल्‍हन सी रातों को, नौलाख सितारों ने लूटा

दो दिन के रैन-बसेरे में, हर चीज़ चुराई जाती है
दीपक तो जलता रहता है, पर रात पराई होती है
गलियों से नैन चुरा लाई, तस्‍वीर किसी के मुखड़े की
रह गये खुले भर रात नयन, दिल तो दिलदारों ने लूटा

जुगनू से तारे बड़े लगे, तारों से सुंदर चाँद लगा
धरती पर जो देखा प्‍यारे, चल रहे चाँद हर नज़र बचा
उड़ रही हवा के साथ नज़र, दर-से-दर, खिड़की से खिड़की
प्‍यारे मन को रंग बदल-बदल, रंगीन इशारों ने लूटा

हर शाम गगन में चिपका दी, तारों के अधरों की पाती
किसने लिख दी, किसको लिख दी, देखी तो, कही नहीं जाती
कहते तो हैं ये किस्‍मत है, धरती पर रहने वालों की
पर मेरी किस्‍मत को तो, इन ठंडे अंगारों ने लूटा

जग में दो ही जने मिले, इनमें रूपयों का नाता है
जाती है किस्‍मत बैठ जहाँ, खोटा सिक्‍का चल जाता है
संगीत छिड़ा है सिक्‍कों का, फिर मीठी नींद नसीब कहाँ
नींदें तो लूटीं रूपयों ने, सपना झंकारों ने लूटा

वन में रोने वाला पक्षी, घर लौट शाम को आता है
जग से जानेवाला पक्षी, घर लौट नहीं पर पाता है
ससुराल चली जब डोली तो, बारात दुआरे तक आई
नैहर को लौटी डोली तो, बेदर्द कहारों ने लूटा
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घोर अंधकार हो, चल रही बयार हो,
आज द्वार द्वार पर यह दिया बुझे नहीं।
यह निशीथ का दिया ला रहा विहान है ।

शक्ति का दिया हुआ, शक्ति को दिया हुआ,
भक्ति से दिया हुआ, यह स्‍वतंत्रतादिया,
रुक रही न नाव हो, जोर का बहाव हो,
आज गंगधार पर यह दिया बुझे नहीं!
यह स्‍वदेश का दिया हुआ प्राण के समान है!

यह अतीत कल्‍पना, यह विनीत प्रार्थना,
यह पुनीत भवना, यह अनंत साधना,
शांति हो, अशांति हो, युद्ध, संधि, क्रांति हो,
तीर पर, कछार पर, यह दिया बुझे नहीं!
देश पर, समाज पर, ज्‍योति का वितान है!

तीन चार फूल है, आस पास धूल है,
बाँस है, फूल है, घास के दुकूल है,
वायु भी हिलोर से, फूँक दे, झकोर दे,
कब्र पर, मजार पर, यह दिया बुझे नहीं!
यह किसी शहीद का पुण्‍य प्राणदान है!

झूम झूम बदलियाँ, चुम चुम बिजलियाँ
आँधियाँ उठा रही, हलचले मचा रही!
लड़ रहा स्‍वदेश हो, शांति का न लेश हो
क्षुद्र जीत हार पर, यह दिया बुझे नहीं!
यह स्‍वतंत्र भावना का स्‍वतंत्र गान है!
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ये रहे कवि नेपाली जी के कुछ गीत जो उन्होंने फिल्मों के लिए लिखे थे|
चलचित्र-नागपंचमी
गायक-मुहम्मद रफी, आशा भोसले
संगीतकार-चित्रगुप्त
गीतकार-गोपालसिंह नेपाली
कलाकार-निरूपा राय,बी एम व्यास, दुर्गा खोटे, मनहर देसाई
वर्ष- 1953, 1950s
चलचित्र-नवरात्रि
गायक-मुहम्मद रफी, आशा भोसले
संगीतकार-चित्रगुप्त
गीतकार-गोपालसिंह नेपाली
कलाकार-निरूपा राय,ललिता पवार, दुर्गा खोटे, मनहर देसाई, कुमकुम
वर्ष- 1955, 1950s
चलचित्र-नई राहें
गायक-मुहम्मद रफी
संगीतकार-रवि
गीतकार-गोपालसिंह नेपाली
कलाकार-अशोक कुमार, गीता बाली
वर्ष- 1959
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रोटियाँ ग़रीब की प्रार्थना बनी रही
एक ही तो प्रश्न है रोटियों की पीर का
पर उसे भी आसरा आँसुओं के नीर का
राज है ग़रीब का ताज दानवीर का
तख़्त भी पलट गया कामना गई नहीं
रोटियाँ ग़रीब की प्रार्थना बनी रही
चूम कर जिन्हें सदा क्राँतियाँ गुज़र गईं
गोद में लिये जिन्हें आँधियाँ बिखर गईं
पूछता ग़रीब वह रोटियाँ किधर गई
देश भी तो बँट गया वेदना बँटी नहीं
रोटियाँ ग़रीब की प्रार्थना बनी रही
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एक रुबाई
अफ़सोस नहीं इसका हमको, जीवन में हम कुछ कर न सके,
झोलियाँ किसी की भर न सके, सन्ताप किसी का हर न सके, 
अपने प्रति सच्चा रहने का, जीवन भर हमने काम किया,
देखा-देखी हम जी न सके, देखा-देखी हम मर न सके ।
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सन्दर्भ-कविता कोश, इंटरनेट,विकिपीडिया

रिटायर्ड-लघुकथा

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रिटायर्ड
''आइए सर, आपका आना बहुत अच्छा लगा|''वर्तमान प्राचार्य महोदय शर्मा जी पूर्व प्राचार्य सिन्हा जी का स्वागत करते हुए कहा|

''घर में बैठे बैठे मन नहीं लग रहा था तो सोचा स्कूल से हो लूँ|''

''आपके अनुभव हमारे बहुत काम आएँगे|''शर्मा जी ने मुस्कुराते हुए कहा|
विद्यालय के सभी शिक्षकगण आए और अभिवादन किया| जो पहले उनके सामने कुर्सी पर बैठते हुए झिझकते थे, आज आराम से बैठकर सर से हालचाल पूछने लगे|

''आपलोग अपने अपने क्लास में जाएँ| बच्चे शोर मचा रहे हैं|''शर्मा जी ने आदेशात्मक लहजे में कहा|

'जी', कहते हुए सभी शिक्षक वहाँ से चले गए |

शर्मा जी वहीं पर बैठकर सिन्हा जी से बातें करने लगे| तभी मोबाइल बज उठा|

मोबाइल पर बात करने के बाद शर्मा जी ने कहा,''सर, बारह बजे मीटिंग है| सभी प्रिंसिपल को फौरन बुलाया गया है| मैं निकलता हूँ|मुन्ना को कह देता हूँ वह चाय बना देगा| आप चाय पीकर ही जाइएगा|''

''नहीं, मै भी निकलता हूँ'',कहते हुए सिन्हा जी भी उठ खड़े हुए|

-ऋता शेखर 'मधु'

ये मिजाज़ है वक़्त का

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अपने गम को खुद सहो, खुशियाँ देना बाँट
अर्पित करते फूल जब, कंटक देते छाँट

ये मिजाज़ है वक़्त का, गहरे इसके काज
राजा रंक फ़कीर सब, किस विधि जाने राज

दुख सुख की हर भावना, खो दे जब आकार
वो मनुष्य ही संत है, रहे जो निर्विकार

दरिया हो जब दर्द का, रह रह भरते नैन
हल्की सी इक ठेस भी, लूटे दिल का चैन

उड़ती हुई सोन चिड़ी, जा उलझी इक झाड़
ज्यों फड़काती पंख वो, बढ़ती जाती बाड़

गर्म तवे पर गिर गया, एक बूँद जो नीर
नाच नाच विलुप्त हुआ, कह ना पाया पीर

तितली भँवरे ने किया, फूल फूल से प्यार
हुलस हुलस कहती फ़िजा, सुन्दर है संसार

न दिख रही हैं तितलियाँ, न है भ्रमर का शोर
सिमट रही है वाटिका, घर है चारो ओर

सौ सौ हों बीमार जब, का करि एक अनार
सौ कामों के बोझ से, दबा रहा इतवार
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सब सुनाने लगे दास्ताँ अपनी अपनी
रफ़्ता रफ़्ता मैं चाँद हो गया

वक्त हमारा इंतजार नहीं करता
हम वक्त का क्यों करे
जो ख्वाब अधूरे हैं
पूरा करने में जुट जाएँ
आगे ये न कहें -"वक्त ही नहीं मिला "
तब वही वक्त कहेगा-"मैं तो हमेशा तुम्हारे साथ था"

काँटे मिलें या चाँटे
हमने तो बस
गुलाब ही बाँटे
मुक्तक

अंतस में हों भाव सुनहरे मुखड़े तभी सजा करते हैं
खिले गुलाबी रौनक से ही नैनन पात पढ़ा करते हैं
उबड़ खाबड़ रस्तो पर मनुज धैर्य से चलते जाना
बुलंद इरादों वाले ही चेहरों पर दृढ़ता गढ़ा करते हैं

गर गुलाब से जीवन की चाहत हो
दोस्ती काँटों से भी करना होगा
हुनर की खुश्बू फिजाओं में होगी
धैर्य की नदिया में भी बहना होगा
शे'र
बशर की हुनर में है पहचान उसकी
वो मिटकर भी दुनिया में आता रहेगा

किसे ये पता है किसे ये ख़बर है
वो किस किस को मरकर रुलाता रहेगा

रे मन! तू भीग जा

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रे मन! तू भीग जा

रंगों में प्रीत की
हो रही बौछार है
रे! मन तू भीग जा
होली का त्योहार है


पुलक रहा है रोम रोम
हुलस रही है रागिनी
रुप रस गंध लिए
हुई धरा पावनी

बसंत बना जादूगर
मकरंद का अंबार है
रे मन! तू भीग जा
पुष्प की मनुहार है

गलियों की टोलियों में
बाल बाल कृष्ण लगे
गोपियाँ नटखट हुईं
पलाश भी हुए सगे

ठिठोलियाँ गूँज रहीं
अबीर की भरमार है
रे मन! तू भीग जा
फागुनी बयार है

हृदय पटल पर घूमती
मायूसियों को त्याग दो
कह रही हैं तितलियाँ
धमनियों को राग दो

भंग की ठंडई में
विचित्र चमत्कार है
रे मन! तू भीग जा
प्रेम की पुकार है
-ऋता शेखर ‘मध

अब और नहीं...लघुकथा

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अब नहीं...
घर में विवाह का माहौल था| सभी परिवार जन जुटे थे| हँसी ठिठोली चल रही थी| रसोई में उर्मिला जी खाना बनाने में तल्लीन थीं| बीच बीच में देवरानी रसोई में झाँककर औपचारिकता वश पूछ लेती,’’आपको कुछ चाहिए जिज्जी’’|
‘’नहीं, तुम बाहर सभी मेहमानों का ख्याल रखो’’
कहती हुई उनकी आवाज में गम्भीरता आ जाती क्योंकि वह जानती थीं कि उन्हे शहर से लाया ही गया है काम करने के लिए| वह विरोध भी नहीं कर सकती थीं| पति को अपने परिवार से अटूट लगाव था और पत्नी उनके परिवार की अवहेलना करे यह कतई बरदाश्त नहीं था|
दो वर्षों वाली टीचर्स ट्रेनिंग की डिग्री भी थी उनके पास| एक बार नौकरी के लिए नियुक्ति पत्र आया था किन्तु देवर और देवरानी ने कहा था,’’आपको नौकरी की क्या जरूरत है भाभी| सब कुछ तो आपका ही है|’’
‘सब सिर्फ काम के भागी हैं’ , यह सोचकर भी वे जवाब नहीं दे सकी थीं|
रसोई में बैठी चुल्हे में लकड़ी डालती हुई काठ की हाँडी में चढ़े चावल चला रही थीं| खदकते हुए चावल के साथ उनके विचार भी खदक रहे थे| सरकार ने पुराने ट्रेंड लोगों को उम्र से परे फिर से नियुक्त करने का फैसला लिया था| उन्होंने वहाँ आवेदन दिया हुआ था| गाँव आने के लिए जब वे घर से निकल रही थीं तभी डाकिया ने नियुक्ति पत्र का लिफाफा पकडाया था| पति ने देखा पर कुछ बोले नहीं| रसोई में वही नियुक्ति पत्र पड़ा था जो उनके विचारों में खदक रहा था|
भोजन का वक्त हो चुका था| देवरानी अन्दर देखने आई तबतक उर्मिला जी माँड पसा रही थीं| उत्सुकतावश देवरानी ने वह कागज उठा लिया| पढ़ते ही स्याह हो गई| फिर खुद को संयत करते हुए बोली, ‘’जिज्जी, अब इस उम्र में नौकरी....’’
‘’छोटी, देख , इस काठ की हाँडी में मैने चावल पकाया है| आगे यह हाँडी नहीं चढ़ेगी|’’
‘’जी, जिज्जी’’ समझदार देवरानी, जेठानी के स्वाभिमान से दीप्त चेहरे को पढ़कर चुप रह गई|
--ऋता

छंदमुक्त

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1.पाने को किनारा

फैसला था
मझधार में जाने का
डुबकियाँ लगती रहीं
सीप की मोतियाँ मिलीं
अब किनारे की चाह
चाह न रही
ज्ञान की तली ने
ठहराव जो दिया
मिटने लगी थीं
अपेक्षाएँ
जगने लगी पिपासा
परमात्मा में लीन होने की

2. दुःख के पके पत्ते

दुःख के पके पत्ते गिरे
मन की संधियों से झाँकने लगीं
कोंपलें सुख की
वह तूफ़ान
जो ले गया दूर
जीवन के विक्षत पन्ने
उसी से बने दलदल में
एक सुबह फूले आशाओं के कँवल
चाँद भी लौटा अमा से जीतकर
मन के आकाश में
कुछ ही पल के तो रहे जीवन के सूर्य ग्रहण
मुश्किल वक़्त ने ही मुझे दिए
करुणा के स्वर
और कर्म निश्छल
दुःख की कुदाल से ही हटे
जीवन की जमीन के जिद्दी अधिग्रहण.

3.दरीचे

बीती बातों के खंडहर में
जाने अनजाने क्यों घूमना
भविष्य के दरीचे से
जरा झाँक कर देख लो
सुवासित उपवन है

4.जादू की छड़ी
आने दो
मन के बसंत पर
व्यथा का पतझर
तभी मिलेंगे
खुशियों के किसलय
अँखियों में
घनघोर बदरिया
छाने दो
पल की परी
जादूई बड़ी
एक बार क्षण भर को
मुस्कानों वाली
छड़ी परी से
पाने दो

5.गुलमोहर
गुलमोहर सी जिंदगी
वीरता के नारंगी साफे में
जीत लेती है
अग्नि मिसाइल छोड़ते हुए
शत्रु धूप को
ख्वाब के पुष्प से
सज जाता आसमान
गुलमोहर
सिर्फ कवि की कविता नहीं
डायरी है साहस की
जिसने पंखुरियों के पन्ने पर
उकेरे हैं
मानव जीवन
6.बदलाव

बचपन की चटाई पर
बिखरे बिखरे खेल
गुड़ियों का घर
रसोई में पकते
झूठमूठ के चावल
और झूठमूठ से
चटखारे ले ले कर
खाती हुई माँ
कि
सच में अब
प्रोत्साहित करने को
माँ नहीं होती
कि
लैपटॉप में रमी
गुड़िया खेलने वाली
बेटियाँ नहीं होतीं

7.सतोलिया

चटपटी चाट सी चटपटी यादें
मन के मैदान पर
सतोलिया सजाती हुई
उस अल्हड़ किशोरी की बाट देखती
जो खिलखिलाकर
गिरा देती
सारी गोटियाँ
और पुनः सजाने की धुन में
निरीह हो जाता
वह विश्वास
जो उसकी सम्पदा थी।

8.मेरी बात

मैं अच्छी हूँ
तुमने कहा
समाज ने माना

मैं बुरी हूँ
तुमने कहा
समाज ने माना

मैं अच्छी ही हूँ
यह मैं कहती हूँ
समाज को मानना होगा
और तुम्हे भी

समाज में मेरा अस्तित्व
मेरी इज्जत
सिर्फ मेरे कर्मों से है
तुम्हारे वचन ने नहीं


9.बँधे हाथ

अपने वतन के वास्ते
गुलमोहर सा प्यार तुम्हारा
अनुशासन के कदम ताल पर
केसरिया श्रृंगार तुम्हारा


पत्थर बाजों की बस्ती में
जीना है दुश्वार तुम्हारा
चोट सहो तुम सीने पर
पर कचनारी हो वार तुम्हारा

हा! कैसा है सन्देश देश का
चुप रहकर शोले पी लेना
उन आतंकी की खातिर तुम
अपमानित होकर जी लेना।

अच्छी नहीं सहिष्णुता इतनी भी
रामलला को याद करो
कोमल मन की बगिया में
कंटक वन आबाद करो
-ऋता शेखर 'मधु'

दोहे

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1.
फूल शूल से है भरा दुनिया का यह पन्थ
चक्षु सीप में रच रहा बूँदों का इक ग्रन्थ
2.
ज्ञान डोर को थाम कर तैरे सागर बीच
तंतु पर है कमल टिका छोड़ घनेरी कीच
3.
पहन सुनहरा घाघरा, आई स्वर्णिम भोर
देशवासियो अब उठो, सरहद पर है चोर
4.
तपी धरा वैशाख की आया सावन याद
मन की पीर कौन गहे गुलमोहर के बाद
5.
शब्द चयन में हो रही जबसे भारीभूल
राई से पर्वत बने उड़े बात के धूल
6.
बेचैनी से घूमते हवाजनित ये रोग
राजनीति के पेंच में उलझे उलझे लोग
7.
क्या देना क्या पावना जब तन त्यागे प्राण
तड़प तड़प के हो गई याद मीन निष्प्राण

--ऋता शेखर 'मधु'

प्राथमिकता-लघुकथा

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प्राथमिकता

"कुमार साहब, ये फाइलें हैं। आप सबकी सॉफ्ट कॉपी बनाकर अधिकारी को मेल कर दें, आज ही, अर्जेंटली।"
"लेकिन सर, कल मेरी बेटी का छेका है।आज बहुत सारे काम है। मुझे छुट्टी चाहिए थी।"
"कुमार साहब, अब ये आप तय करें कि सरकारी और घर के काम में आप किसे ज्यादा महत्व देंगे।"
कुमार साहब के सहयोगी ने थोड़े मजाकिया अंदाज़ में कहा, "यार कुमार,ये तो सरकारी काम है, हो ही जायेगा। तुम नहीं करोगे तो कोई और कर देगा।मैं तो कहता हूँ छुट्टी ले लो।"
"यही बात तो घर के काम पर भी लागू हो सकती है।"
कहते हुए कुमार साहब ने घर पर फोन लगाया।
"मैं आज छुट्टी नहीं ले सकता। सरिता, तुम संभाल लेना।"
-ऋता शेखर "मधु"

डील-लघुकथा

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डील

कॉफी कैफे में बैठे मोहित और अनन्या औपचारिक बातचीत कर रहे थे। दोनों ही अच्छे पैकेज वाले मल्टी नेशनल कम्पनी में कार्यरत थे। शादी डॉट कॉम वाली साइट से दोनों परिवारों ने अपनी सहमति दी थी।चूँकि दोनों एक ही शहर में कार्यरत थे इसलिए अपने अभिभावकों की अनुमति से एक दूसरे को देखने और मिलने आये थे।

कॉरपोरेट स्टाइल में दोनों की बातें इस तरह से चल रही थीं जैसे कोई डील पक्की कर रहे हों।

"मोहित, आप खाना तो बना लेते होंगे।"

"बिलकुल बना लेता हूँ। "

"तो वीक में तीन दिन मैं और तीन दिन आप किचेन देख लेंगे"

"मैं पूरे वीक देख लूँगा।"

"सच ! बाहर से सामान कौन लाएगा।"

"मैं हूँ न", मोहित ने मुस्कुराते हुए कहा।

"अच्छा, शॉपिंग भी करवाएंगे।"

"वीकेंड में शॉपिंग भी और खाना भी बाहर खाएंगे।"

"एक बात और मोहित, आपके पैरेंट्स हमारे साथ ही रहेंगे क्या।"

माता पिता का एकमात्र पुत्र मोहित यह सुनकर मन ही मन आहत हुआ किन्तु बात सँभालते हुए बोला-

"जैसा तुम चाहोगी"

"मैं नहीं चाहती कि हमारी आजादी में कोई खलल हो।रोक टोक बर्दाश्त नहीं कर पाऊँगी।"

"ओके, फिर मैं अपने पेरेंट्स को नहीं रखूँगा "

अनन्या का चेहरा ख़ुशी से खिल गया।

"अनन्या, तुम्हारी सारी डील मुझे स्वीकार है। एक बात मेरी भी मान लो।"

"जी, बोलिये।"

"तुम्हे भी अपने पेरेंट्स के आने पर पाबन्दी लगानी होगी। मेरी यह बात मान्य है तो फिर रिश्ता पक्का समझो।"

मोहित गंभीरता से बोला।

"मोहित, पेरेंट्स वाली डील कैंसिल कर देते है।"अनन्या के चेहरे के बदलते भाव मोहित महसूस कर रहा था।

"ऐज यू विश"कहते हुए विजयी मुस्कान मोहित के चेहरे पर फ़ैल गई।

-ऋता शेखर 'मधु'

संस्कारहीन

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संस्कारहीन

'देखिए जी, लेन देन पर हम थोड़ा बात कर लें, फिर बात पक्की ही समझें| आपकी बेटी बहुत संस्कारी है और हमें ऐसी ही लड़की की जरूरत है,'लड़के के पिता ने रोब लेते हुए कहा|

'जी, आप जैसा कहैं हम अपनी हैसियत के अनुसार देने के लिए तैयार हैं,'मद्धिम आवाज थी लड़की के पिता की|

'समान तो जो आप अपनी लड़की को गृहस्थी जमाने के लिए देंगे वो तो देंगे ही| हमें कैश के रूप में दस लाख दे दें, बस| बारातियों का स्वागत तो आप अच्छे से करेंगे ही| हमारा घर भी बहुत संस्कारी है, बिटिया को कोई तकलीफ न होगी'लड़के के पिता की आवाज थी|

'अंकल'अचानक लड़की बोल पड़ी, 'आप जो दस लाख लेंगे उसमें से मेरे लिएआठ लाख के जेवर तो बनवाएँगे ही जो संस्कारी घर में चलता है|'

'संस्कारहीन लड़की, लेन देन की बात करती है'लड़के के पिता भड़क गए|

'अब मैं क्या बोलूँ संस्कारहीनता पर...'लड़की ने मुस्कुराकर कहा और कमरे से बाहर निकल गई|

--ऋता


प्रतिबिम्ब--कुछ भाव कुछ क्षणिकाएँ

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बँधे हाथ

अपने वतन के वास्ते
गुलमोहर सा प्यार तुम्हारा
अनुशासन के कदम ताल पर
केसरिया श्रृंगार तुम्हारा
 

पत्थर बाजों की बस्ती में
जीना है दुश्वार तुम्हारा
चोट सहो तुम सीने पर
पर कचनारी हो वार तुम्हारा

हा! कैसा है सन्देश देश का
चुप रहकर शोले पी लेना
उन आतंकी की खातिर तुम
अपमानित होकर जी लेना।

अच्छी नहीं सहिष्णुता इतनी भी
रामलला को याद करो
कोमल मन की बगिया में
कंटक वन आबाद करो
-ऋता
============================

बुद्धत्व

मंजिल पर शून्य है
रे मन, सफ़र में ही रहा कर

संसार में
रोग क्यों है
शोक क्यों है
बुढ़ापा क्यों है
मृत्यु क्यों है
इस शाश्वत सत्य की खोज में
सिद्धार्थ को बुद्धत्व प्राप्त हुआ।
क्यों है...इसका उत्तर सहज नहीं
और यदि ये सब है ही
तो सहज स्वीकार्यता ही
संसार में बुद्धत्व पाने का सरल मार्ग है
ये मार्ग सरल होते हुए भी सहज नहीं
जीवन में हर मनुष्य इनकी खोज में है
मन का बूद्ध हो जाना भी
शाश्वत सत्य है।
-ऋता

 ===================
प्रतिबिम्ब
 
सागर भी है
तलैया भी
गगन का प्रतिबिम्ब
दोनों में समाया
अशांत लहरो में
गगन भी अशांत सा
तलैये के मौन में
महफूज़ चाँद सितारे
-ऋता
====================

एक सवाल

मनु,
तू कौन है, क्या है?
एक आकार
एक आत्मा
एक भाव
एक सोच
एक मन
एक यात्री
एक रास्ता
एक मंजिल
एक नागरिक
एक धर्म
एक मानवता
एक मोह
एक त्याग
एक अभिलाषा
एक लिप्सा
एक क्रोध
एक भाषा
एक जनक
एक सार
एक तत्व
एक प्रेम
एक विरह
एक भोग
एक विलास
एक क्रिया
एक प्रक्रिया
एक प्रशंसा
एक आलोचना
एक सत्यवादी
एक चापलूस
एक वक्ता
एक श्रोता
एक अभिव्यक्ति
एक पीर
एक हास्य
एक गंभीर

मनु: सुन ले
तू एक व्यक्तित्व हूँ
उपरोक्त सारे गुणों से लबरेज
प्रभु की अनुपम कृति है।

=========================

उम्मीदें

उम्मीदें तो बीज हैं
उनकी अवस्था
सुसुप्त नहीं होती
बार बार अंकुरण
बार बार आघात
फिर भी कोंपल
झाँकने को आतुर
मुरझाने का सिलसिला
जाने कब तक चले
अंकुरण की प्रक्रिया
जारी रहती है
अनवरत
===========================


 ये जरूरी नहीं कि हमारे शुभचिंतक सिर्फ हमारे अपने रिश्तेदार या मित्र ही हों...कई शुभचिंतक वो भी होते है जो राह चलते मिल जाते है...
जैसे जब आप ट्रेन में हो और गंतव्य के पास से गाडी धीरे धीरे गुजर रही हो तब उतरने की चेष्टा करते हुए किसी का टोक देना...
जब फ्लाइट में थोड़े हेवी सामन के साथ आप अकेले हों तब किसी का हाथ बढाकर आपका बैग उतार देना...
जब आप बेध्यानी में पटरी क्रॉस करके प्लेटफॉर्म पर आते हुए उधर से आ रही ट्रेन न देख पाएं हो तो पब्लिक का एक साथ चिल्ला देना...
जब आधे किलोमीटर की दूरी तय करवाकर ऑटो वाले का पैसा न लेना...
और भी बहुत कुछ जो याद रह जाता है और उन अजनबियों को मन बार बार धन्यवाद के साथ दुआएँ भी देता है। यदि आप किसी की मदद के लिए हाथ बढ़ाते है तो बदले में बहुत कुछ अर्जित कर लेते है।

आज उन सभी को धन्यवाद।

 



यादें हरसिंगार हों

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दोहे 
 1
दादी अम्मी टोकते, टोकें अब्बूजान
लगा सोलवां साल अब, आफत में है जान
2
महँगाई की मार से बिलख रहा इंसान
जीवनयापन के लिए आफत में है जान

 3
इधर उधर क्या ढूँढता, सब कुछ तेरे पास
नारियल के बीच बसी, मीठी मीठी प्यास

 4
यादें हरसिंगार हों, वादे गेंदा फूल
आस बने सूरजमुखी, कहाँ टिके फिर शूल
5
कड़ी धूप की लालिमा दिल में है आबाद
गर्मी में आती सदा गुलमोहर की याद
6
चुप रहना अद्भुत कला, जान न पाये आप
मनमोहन से सीख कर, मन में ही करिये जाप ऋता
7
 हृदय पुष्प को खोलकर, बोले अपना हाल
बिन गुलाल के मैं सखी, हुई शर्म से लाल
8गुणीजनों के साथ हों, जब अच्छे संवाद
समझो माटी को मिला, उर्वरता का खाद
9
 नित प्रातः हरि नाम से, दिन को मिले मिठास
थाली को ज्यों गुड़ मिले, भोजन बनता खास
10
 कहो कौन किसके लिए जग में रोता यार
अपने अपने स्वार्थ में जीता है संसार
11
निज गुण के जो हैं धनी, झेलें नहीं अभाव
खुद से वह रखते परे, दूसरों का प्रभाव
-ऋता
==============================


कुण्डलिया ...

सावन आया झूमकर, नाचे है मन मोर
नभ में बादल घूमते, खूब मचाते शोर
खूब मचाते शोर, गीत खुशियों के गाते
तितली भँवरे बाग़, हृदय को हैं हुलसाते
मीठे झरनों का राग, लगे है सुन्दर पावन
नाचे है मन मोर, झूमकर आया सावन
-ऋता

================================

 हाइकु-

वृक्ष सम्पदा
हर मनु के नाम
एक हो वृक्ष

अश्व लेखनी
सरकारी कागज
दौड़ते अश्व
ऋता शेखर 'मधु'


आ, अब लौट चलें...

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कहते हैं जीवन में कभी न कभी हम सब उन सभी चीजों से आकर्षित हो जाते हैं जो सहज उपलब्ध हो| जहाँ वाहवाही मिले वहाँ बार बार जाने की इच्छा होती है| त्वरित मिली प्रतिक्रियाएँ लुभाने लगती हैं और हम भूल जाते हैं उस पुश्तैनी मकान को जहाँ हमने बचपन गुजारा था| कुछ दिनों की चमक दमक के बाद पुराने संगी साथी याद आने लगते हैं और दिल बार बार कहने लगता है...आ , अब लौट चलें...या फिर...ओ साथी रे, तेरे बिना भी क्या जीना...
ऐसा ही कुछ हुआ हम सभी ब्लॉगर्स के साथ...जब नेट की दुनिया में हमने कदम रखा तो मन के भीतर उमड़ते घुमड़ते विचारों को लिखने के लिए एक डायरी मिल गई ब्लॉग के रूप में| ब्लॉग पर एक सुविधा थी फौलोवर बनने की...तो जिनकी पोस्ट पसंद आने लगी उस ब्लॉग को फौलो करने लगे| जब भी उस ब्लॉग पर नई पोस्ट आती हमें सूचना मिल जाती और हम वहाँ टहल आते| एकाध कमेंट भी डाल देते और फिर जाकर देखते कि उन ब्लॉगर महोदय/ महोदया ने रेस्पॉंस दिया या नहीं| हमारे ब्लॉग पर भी लोग आने लगे और हम खुद को लेखिका समझने की भूल कर बैठेः)
कुछ ब्लॉग, एग्रीगेटर का काम करते और हमलोगों की जो पोस्ट उन्हें अच्छी लगती उसका लिंक एक स्थान पर इकट्ठा कर के पाठकों तक पहुँचाते| उनमें "चर्चा मंच"और "हलचल"उन दिनों प्रमुख हुआ करते थे| इससे page view भी बढ़ता और रचनाएँ ज्यादा से ज्यादा लोगों तक चली जातीं| उस समय अच्छा से अच्छा लिखने की तीव्र लालसा रहती और सच कहें तो उस समय जो लिखी वह फिर नहीं लिख पाई| हम, बच्चों को अक्सर यह कहते हैं कि किसी भी चीज की लत बुरी होती है| पर जब बात खुद पर आई तो फेसबुक की लत लगने लगी और चाह कर भी हम उस लालसा को छोड़ नहीं पाए और रोजाना अपना कीमती वक्त फेसबुक को देने लगे इससे रचनकर्म पर बहुत प्रभाव पड़ा| जो भी विचार मन में आया वह मन की कोठरी में कैद न रहकर फेसबुक स्टेटस बनने लगा| जब हमने फेसबुक अकाउंट खोला तो जिन ब्लॉगर मित्रों को जानते थे उन्हें फ्रेंड रिक्वेस्ट भेज दिया| छोटी कविताएँ पोस्ट करने लगे| फिर मित्रता अनुरोध आने लगे तो फटाफट स्वीकार भी की| लेकिन क्षेत्र कोई भी हो, कुछ खट्टे मीठे अनुभव भी हुए जिसे इग्नोर किया| व्हाट्स एप ने रही सही कसर पूरी की और सभी उसकी गिरफ्त में आने लगे| सबके पास मोबाइल और सोशल मिडिया का जुड़ाव बढ़ा| जहाँ पहले ब्लॉगर्स महीने में ज्यादा से ज्यादा पोस्ट डालने के लिए श्रम करते वहाँ अब महीनों तक इधर झाँकना भी बन्द कर दिया सबने| ब्लॉगर साथी फेसबुक पर दिखने लगे और हमारा ब्लॉग भूतबँगला बनने लगा |
एक दिन बुद्धत्व जैसा कुछ ज्ञान मिला तब लगा कि फेसबुक चौराहा है और ब्लॉग सुरक्षित घर जैसा| इधर कुछ महीने पहले से हमने पोस्ट फिर से डालना शुरु किया| तीन चार पोस्ट आकर शिड्यूल कर जाते जो समय समय पर स्वयम् प्रकाशित हो जाते| पहले जो एग्रीगेटर हमारी पोस्ट ले जाते उन्हे धन्यवाद देने जरूर जाते| बाद में उसमें भी सुस्ती होने लगी|
तो दोस्तो, फेसबुक के द्वारा मित्रता कायम रखें पर ब्लॉगिंग की ओर भी ध्यान दें| सार्थक बाते यहीं मिलेंगी|
पोस्ट लिखें...दूसरों की पोस्ट पर भी जाएँ...यहाँ लाइक का ऑप्शन तो नहीं है पर टिप्पणी तो कर ही सकते|
ब्लॉग पोस्ट को मनचाहा सजाएँ और लगाएँ| एक आह्वान था कि 1 जुलाई से सबके कदम पुनः ब्लॉग की ओर मुड़ें| इस आह्वान का मैं तहेदिल से स्वागत करती हूँ और समय प्रबंधन भी करना होगा कि कोई भी स्थान छूटे नहीं|
ब्लॉगर ऋता

टैक्स के आतंक से मुक्ति- जी एस टी (GST)

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GST- Goods & Services tax.....

इसे good and simple tax के रूप में बताया जा रहा है|
30 जून और 1 जुलाई 17 की मध्यरात्रि को GST का लॉन्च समारोह संसद के सेन्ट्रल हॉल में हुआ जिसमें वित्तमंत्री अरुण जेटली ने बताया कि एक राष्ट्र एक टैक्स- One nation one tax ही इसका उद्देश्य है और इससे टैक्स चोरी से राहत मिलेगी|
कर प्रणाली व्यवस्था आसान होगी|
केलकर ने 2003 मे एक ऐतिहासिक फैसला लिया था कि पूरे देश में एक तरह का टैक्स हो|
इसमें17 टैक्स और 22 सेस को खत्म किया गया|

प्रधामंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा ---
यह व्यवस्था किसी एक सरकार की देन नहीं बल्कि सा़ँझा प्रयास का फल है|
जी एस टी की कुल18 बैठकें हुईं|
जी एस टी संघीय ढाँचे की मिसाल है|
जी एस टी लंबी परिचर्चा का परिणाम है|
सवा सौ करोड़ जनता साक्षी बनी|
आर्थिक एकीकरण होगा|
आइंसटीन ने कहा था- इन्कम टैस्क समझना सबसे कठिन काम |
गरीबों का खास ख्याल रखा गया है|
देश आधुनिक टैक्स व्यवस्था की ओर बढ़ रहा|
बीस लाख वाले कारोबारियों को कोई टैक्स नहीं देना पड़ेगा |
यह व्यवस्था इमानदारी का अवसर देगी|
यह सरल पारदर्शी व्यवस्था है|
कच्चा बिल और पक्के बिल का चक्कर खत्म हुआ|
विदेशी व्यापारियों को सुविधा मिलेगी|
आर्थिक से भी आगे सामाजिक क्रा़ंति है जी एस टी|
टैक्स पर टैक्स...टैक्स पर टैक्स से मुक्ति मिली|
यह सरल पारदर्शी व्यवस्था है|
इससे आर्थिक एकीकरण होगा|
राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने कहा...
14 वर्षों का सफर है जी एस टी का
रात के बारह बजे से जी एस टी लागू
दुनिया का सबसे बड़ा टैक्स सुधार
=============================
देश में कहीं भी सामान खरीदो, एक ही मूल्य लगेगा|
सबसे खुशी की बात है कि सभी पार्टियों ने इसे समर्थन दिया है|
ऋता शेखर 'मधु'

दोहे की दुनिया

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दोहे

1
बहन रेशमी डोर को, खुद देना आकार |
चीनी राखी त्याग कर, पूर्ण करो त्योहार||
2
महकी जूही की कली, देखन को शुभ भोर
खग मनुष्य पादप सभी, किलक रहे चहुँ ओर
3
मन के भीतर आग है, ऊपर दिखता बर्फ़।
अपने अपनों के लिए, तरल हुए हैं हर्फ़।।
4
ज्ञान, दान, मुस्कान धन, दिल को रखे करीब।
भौतिक धन ज्यों ज्यों बढ़े, होने लगे गरीब।।
5
जब जब भी उठने लगा, तुझपर से विश्वास|
दूर कहीं लहरा गई, दीप किरण सी आस||
6
इधर उधर क्या ढूँढता, सब तेरे ही पास|
नारिकेल के बीच है, मीठी मीठी आस||
7
अफ़रातफ़री से कहाँ,होते अच्छे काम।
सही समय पर ही लगे,मीठे मीठे आम||
8
बिन काँटों के ना मिले, खुश्बूदार गुलाब|
सब कुछ दामन में लिए, बनो तुम आफ़ताब||
9
पावन श्रावण मास की, महिमा अपरम्पार।
बूँद बूँद है शिवमयी, भीगा है संसार।।.
10
जब जब पढ़ते लिस्ट में, लम्बी चौड़ी माँग|
नीलकंठ भगवान को,तब भाते हैं भाँग||
11
फूल खिलें सद्भाव के, खुश्बू मिले अपार।
कटुक वचन है दलदली, रिश्तों को दे मार।।

--ऋता

आदर्श घर

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आदर्श घर

निकिता का जन्म ऐसे परिवार में हुआ था जहाँ बेटा-बेटी का कोई भेदभाव न था| अच्छे संस्कारों के साथ बड़ी होती हुई दादी की प्यारी पोती निकिता डॉक्टर बन चुकी थी और उसका विवाह हो चुका था|

वह भाई की शादी में आई थी| सबने उसे सर-माथे पे बिठाया| वह भी पूरे घर में चहकी फिर रही थी| माँ कुलदेवता की पूजा में व्यस्त थी| पूजा के बाद प्रसाद बँटने लगा तो दादी की आवाज आई|

"बहू, सबसे किनारे वाले देवता का प्रसाद निक्की को न देना|"

"क्यों दादी"निकिता की आवाज में हल्की सी नाराजगी थी|

"निक्की बेटा, वो प्रसाद सिर्फ खानदान के बच्चे ही खा सकते हैं| वह तेरा भाई ही खा सकता है|"

अचंभित सी निकिता ने अपना बढ़ा हुआ हाथ पीछे खींच लिया|

"मैं इस घर को अपना आदर्श मानती थी माँ,"निकिता की रुआँसी आवाज सिर्फ उसकी माँ ही सुन पाई|

--ऋता शेखर 'मधु'
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