नारी हूँ मैं , संज्ञा हूँमैं
जब जब लेखनी उठाती हूँ
तड़प उठती हूँ देखकर
समाज में फैली कुव्यवस्था
दर्द दुख द्वेष छल अत्याचार
व्यक्त करना चाहती हूँ
उन सभी के अंतस को
जो मौन रह सह जाते हैं वह भी
जो नहीं सहना चाहिए
उस वक्त मैं जातिवाचक हूँ
संज्ञा हूँ मैं
एक नागरिक की तरह
देशभक्ति के गीत लिखती हूँ
सरहद पर सैनिकों की
भावना व्यथा महसूस करती हूँ
प्रान्तीय झगड़ों में
निर्दोष रक्त-धार देखती हूँ
देश हित से अधिक
निज हित में लिप्त
इंसानों की कतार देखती हूँ
कर्तव्य से अधिक
अधिकार के नारे सुनती हूँ
अपने वतन के लिए स्थानवाचक हूँ
संज्ञा हूँ मैं
नारी के कई किरदार हूँ
उम्र के हर मोड़ पर
मेरी सोच, मेरे निर्णय पर
दूसरों के अधिकार हैं
टूटे सपनों के किरचें चुनती
मुस्कुराती रहती हूँ सबके लिए
आहत मर्म जब बनते मेघ
नयन सावन बन जाते हैं
चाहतों की कश्ती सजाती
शब्दों के साहिल पर
अनुभूतियों का भाववाचक हूँ
संज्ञा हूँ मैं
महीने भर की रसोई के लिए
सूचि बनाती हूँ
दूध धोबी के हिसाब लिखती हूँ
दुकानों में सेल देख ठिठकती हूँ
सब्जियों के मोलभाव करती
भिंडी टमाटर चुनती हूँ
‘जागो ग्राहक जागो’याद करके
खराब सामान वापस कर देती हूँ
बैंकिंग से ए टी एम तक
इन्कम टैक्स से लेकर रिटर्न तक
बखूबी लेखनी चलती है
तब खुद को द्रव्यवाचक पाती हूँ
संज्ञा हूँ मैं
नारी होने पर गर्व है
अपनी परम्पराएँ संस्कार
जी जान से निभाती हूँ
सहन शक्ति तो बला की है
पर नियम विरुद्ध चलने वालों को
अच्छा खासा पाठ भी पढ़ाती हूँ
किसी की हजार बातें सह लूँ
पर मान पर आघात करने वाले
असभ्य अपशब्द बिल्कुल नहीं
उस वक्त स्वाभिमानी बनी
व्यक्तिवाचक में ढल जाती हूँ
मैं पूर्ण संज्ञा बन जाती हूँ||
ऋता शेखर ‘मधु’