हमारे श्रमिक...
सिर पर गारा हाथ में छेनी
धूप भी तो स्वीकार है
पेट है खाली तन पर चिथड़े
ना कोई प्रतिकार है
मौन मुख बाजू फौलादी
सबके ही मददगार हैं
झुलसा तन माथे पर बूँदें
प्रेम के हकदार हैं
ईंटों से ईंटें जोड़ रहे
आँखें निर्विकार हैं
जूझ रहे मशीनों की भट्ठी में
क्यूँ उनका तिरस्कार है?
एक जून रोटी की खातिर
तीन जून न्योछार है
कोमलांगी पत्थर जब तोड़े
मानवता को धिक्कार है
बिन इनके तो देश चले ना
ये 'अर्थ'के आधार हैं
समय बदला नीयत बदली
दो, जो इनके अधिकार हैं
रख लेते जो मान सदा इनका
वहाँ टिक जाती सरकार है
..ऋता शेखर मधु