ढाई आखर प्रेम का, पढ़ती बारम्बार|
मक्कारी की बाड़ है, कैसे जाऊँ पार||१
भव सागर में तैरती, जा पहुँची मँझधार|
लहरों का विस्तार है, कैसे जाऊँ पार||२
बड़ी विकट है यह घड़ी, मेरे पालनहार|
कुछ तो राह सुझाइए, कैसे जाऊँ पार||३
लोभ मोह में कट गए, जीवन के दिन चार|
मोक्ष क्षितिज पर है खड़ा, कैसे जाऊँ पार||४
सूरत से सीरत भली, यही हृदय का सार|
बिन दया या धर्म किए, कैसे जाऊँ पार||५
............................ऋता