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उड़हुल के फूल...


उसे
फूलों से
बहुत प्यार था
पत्ता-पत्ता
बूटा बूटा
उसके स्पर्श से
खिले रहते

नित भोर
वह और
उसकी फुलवारी
कर में खुरपी
सजाती रहती क्यारी
गुनगुनाती रहती
भूल के दुनिया सारी
गेंदा,गुलाब, जूही
चम्पा चमेली
बाग में तो
वही थीं सहेली

और एक था
उड़हुल का पेड़
उसकी डालियाँ
लचक जाती थीं
पाँच पँखुड़ी वाले
सूर्ख़ चमकदार
लाल फूलों से

हर रोज वह पेड़
फूलों से लद जाता
वह गिनती
एक दो तीन....बीस
अब वह हिसाब लगाती
इनमें दस फूल
दुर्गाजी, हनुमान जी
लक्ष्मी जी....के लिए,
बाकी बचे दस फूल
बाग की शोभा बनते
हवा में झूम झूम
सबको लुभाते

किसी दिन मिलते
एक दो...दस
पाँच ईश्वर के नाम
पाँच बाग की शोभा
फिर एक दिन दो फूल
एक प्रभु सिर माथ
दूजा बाग के साथ

समय पर
सबको जाना होता है
वह भी गई
दिन महीने वर्ष बीते
वापस आई
बगिया को निहारा
कुछ नाजुक पौधे
सूख चुके थे
उड़हुल के तने
मोटे हो चुके थे
उसपर फूल नहीं थे
उसने
पौधों पर हाथ फिराया
पानी से सींचा|

दूसरी सुबह
पूर्ववत
वह फूलों से लदा
उसने गिना
एक दो तीन...छब्बीस
आदत के मुताबिक़
उसने फिर हिसाब लगाया
तेरह पूजा में
तेरह पेड़ पर|

पूजा के समय
फूल तोड़ने गई
पर क्या...
पेड़ पुष्पविहीन थे
हैरान हुई
सभी पुष्प
भगवान पर चढ़े थे
वह
असमंजस में खड़ी रही

अचानक
उसकी तन्द्रा टूटी
वह भूल गई थी
इस घर में अब
एक नई पुजारन भी थी
बाग भी
अपने फूलों के बिना
उदास था|

वह
जिसका मन
खुली किताब था
अचानक
बन्द हो गया
वह
बताना चाहती थी
अपने मन की बात
कहने की कोशिश भी की
भीतर के अंकित शब्द
आँखों की नमी में घुलकर
धुँधला चुके थे
मिटते हुए शब्दों ने
फुसफुसा कर कहा
अब यह मंदिर
तुम्हारा नहीं|
....ऋता

घर में फूल के पौधे हैं तो
सब न तोड़ें पूजा के बहाने..
कुछ फूल बाग में भी छोड़ दें...
हवा को सुरभित करने के लिए...
भगवान खुश...बाग भी खुशः)

....................ऋता

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