कहीं कुछ शाश्वत नहीं
कुछ भी तो नहीं
न अँधेरा न उजाला
न गीष्म न शरद
न अमृत न विष का प्याला
शाश्वत हैं सूरज और चंदा
मगर गति शाश्वत नहीं
दिन होते हर रोज़
मगर उजियार शाश्वत नहीं
कभी मेघ घिरे
कभी धुंध उगे
कभी ग्रहण की छाया
हर दिवस सुखद न होता
यही है प्रभु की माया
निशा आती सांध्य सीढ़ी से
मगर अंधकार शाश्वत नहीं
कभी बरसती चांदनी
कभी अमा का है कहर
कभी तम नैराश्य का
कभी ग़ज़ल की है बहर
पाप और पुण्य भी
होते शाश्वत नहीं
एक के लिए जो शुभ है
दूसरे के लिए है अशुभ
बारिश की झमझम बूँदें
कृषक की खुशी बनती
वहीं सावन को देख
रजक को होती कसक
जीवन का आना एक प्रक्रिया है
यह मन में भरता है उजास
जीवन जीना बाध्यता है
उतार चढ़ाव
जीवन सफ़र का सच है
पल में बदल जाते हैं रास्ते
पल में बदल जाते हैं रिश्ते
कई किश्तों में जीते हुए
कहीं सुख पनपते
कहीं दर्द रिसते
पर कुछ भी शाश्वत नहीं
मौत भी शाश्वत नहीं
कहीं बिन बुलाए आती है
कहीं बुलाने पर मुँह छुपाती है
जवानी में मरने की इच्छा
बुढ़ापे में जीने की इच्छा जगाती है
श्मशान ही मंजिल है सबकी
मगर सबको वह नसीब नहीं
सुनामियों में बहने वाले
कब घाट पर जलते हैं ?
कहीं शव पर होती
अश्रुओं की बारिश
कहीं वह पड़ा है लावारिस
कुछ भी तो शाश्वत नहीं
स्वर्ग से लौट कोई आया नहीं
नरक भी किसी ने बताया नहीं
जैसे होते हैं करम
हम वैसा ही फल पाते हैं
स्वर्ग नरक है इसी जहाँ में
कल्पना में क्यूँ भरमाते हैं
भूत को जी लिया
वर्तमान में डरे हुए
भविष्य को संजो लिया
जितना जी लिया
वे पल शाश्वत हैं
आज क्या होगा
कोई नहीं जानता
भविष्य तो अनिश्चित है ही
बड़े बड़े भक्तों को हमने
तड़प तड़प कर मरते देखा
जिसने कभी न धूप दिखाया
बिना कष्ट के उठते देखा
जीना है तो जीना है
बाकी विधि के हाथ में है
कभी किसी का ना हो बुरा
सोच की यह निधि साथ में है
पर सोच भी तो शाश्वत नहीं
सरल से विरल में जाती
उम्र के पड़ाव के साथ
कभी प्रेम कभी वेदना गाती
नम्रता के चोले में
कठोरता भी अपनाती
कभी सिद्धांत बनाती
कभी तोड़ आगे बढ़ जाती
कहीं कुछ शाश्वत नहीं
कुछ भी तो नहीं !!!!!!
.................ऋता