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Channel: मधुर गुँजन
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आत्महत्या लाँग ड्राइव नहीं कि सोचा और निकल लिये

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सर्दियों में बढ़ जाता है अवसाद का ...
आत्महत्या...क्या स्वयं को खत्म कर लेने वाला ही जिम्मेवार या कोई और भी है जिम्मेवार?

आत्महत्या को कायरता कहकर आत्महत्या के कारणों को नज़रअंदाज कर देना बड़ी भूल है| 
एक होती है शरीर की हत्या जिसके लिए मारने वाले को अपराधी घोषित किया जाता है| उससे भी भयंकर होती है किसी के मन की हत्या कर देना| शरीर की हत्या के लिए उपयोग में लाए गये हथियार दिखते हैं किंतु  आत्महत्या के लिये मजबूर करने वाले अपराधियों के शब्द- बाण किसी को नहीं दिखते| उनका आहत करने वाला व्यवहार परदे की ओट में चला जाता है|
जन्म लेने वाले हर इंसान के लिए ज़िन्दगी खूबसूरत होती है| वह भी खिलखिलाना चाहता है, बादलों को देखकर नाचना चाहता है| कोई शारीरिक रूप से अक्षम होता है फिर भी वह खुश रहता है| फिर ऐसा क्या हो जाता है कि मनुष्य  स्वयं की हत्या कर देता है| कभी- कभी कहना बहुत आसान होता है कि परिस्थिति का डटकर मुकाबला करना चाहिए,किसी को क्या पता कि वह इंसान मुकाबला कर रहा  होता है फिर भी वह हार जाता है| 
कहा जाता है कि ईश्वर एक रास्ता बंद करते हैं तो दस रास्ते खोल देते हैं| यह सही भी है | फिर भी उस स्थिति की कल्पना  की जा सकती है कि खुद को खत्म करने से पहले वह इंसान खुद कितनी मानसिक प्रताड़ना से गुजरा होगा| मैं तो मानसिक विक्षिप्तता को भी हत्या की श्रेणी में ही रखती हूँ| वह साँस ले रहा है इसका अर्थ यह नहीं कि वह जिन्दा है| वैसे रोगियों का भी पास्ट टटोलकर देखना चाहिए तब पता चलेगा कि उसके मस्तिष्क पर असंख्य विषबुझे बाण चुभे होते हैं जो  उसने  निकालने की कोशिश भी अवश्य की होगी...विक्षिप्त होने से पहले|
प्रताड़ना...स्त्री विमर्ष का हिस्सा भी है| विवाह एक जुआ है| जो जीत गया वो जीत गया...जो न जीत पाया वह तिल तिल कर मरता रहा| साथ ही समाज की प्रताड़ना भी सहता रहा कि निभाने में ही भलाई है| हद से अधिक जाकर निभाने की कोशिश भी की जाती है, फिर भी इसका चरम क्या हो सकता है...आत्महत्या, घर का परित्याग या मानसिक रोग...और ये तीनों स्थितियाँ हत्या ही हैं जिसके लिए जिम्मेवार व्यक्ति की खोज अवश्य की जानी चाहिए| इसके शिकार पुरुष भी हो सकते हैं|
पारिवारिक स्थिति के बाद सामाजिक स्थिति पर विचार करें तों अड़ोस पड़ोस की प्रताड़ना, किसी लड़की को बाहर निकलने से भी खौफ़ देने वाले गुंडों की फौज, स्कूल कॉलेज में होने वाले रैगिंग कई बार आत्महत्या के कारण बन जाते हैं| इन सबके उदाहरण भी हम सभी के आस पास ही मौजूद हैं पर किसी घटना के विस्तार में  जाना इस पोस्ट का मकसद नहीं|
उसके बाद नौकरी में प्रतिद्वंदिता और प्रताड़ना के कारण भी आत्महत्या के मामले आते हैं| आजकल बहुराष्ट्रीय कंपनियों में काम करने वाले बच्चे भी बहुुत दवाब में रहते हैं| कहने को कोरोनाकाल में वर्क फ्रॉम होम हो रहा..किंतु काम बहुत अधिक लिया जा रहा| विदेशी कंपनियाँ स्वयं रात्रि का समय बचाकर रात के ग्यारह बारह बजे भारतीय कर्मचारियों के साथ मीटिंग रखते हैं|
पोस्ट क्यों लिखी जा रही यह तो समझ ही गये होंगे| अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या  जहाँ फिल्मी दुनिया के कई राज सामने ला रहा उससे अधिक अभिभावकों के मन में भय पैदा कर रहा| जिन बच्चों को माता- पिता अपना सर्वस्व देकर जिन्दगी जीने लायक बनाते हैं वह बच्चा किस मानसिक दबाव में जी रहा, शायद कभी कभी जान भी नहीं पाते| ऐसे में सुशांत की मौत पर उनके साथ इस विषय पर बात करने से भी अभिभावक डर रहे| प्रतिस्पर्धा की दुनिया में नौकरी न पाना, पा लिया तो टिक न पाना, टिक गये तो दबाव में जीना...यह सब क्या है, यह विचारणीय है| कब किसके मन पर नकारात्मकता हावी हो जाए यह कहना मुश्किल है| ऐसे में कोई सुनने वाला हो, यह सबसे जरूरी है| सुशांत के मामले में मैं समझ पा रही हूँ कि माँ का न होना भी कारण बन सकता है| माँ रहतीं तो वह अपने दबाव उनसे साझा कर सकते थे| 
ःः मेरी यह पोस्ट आत्महत्या या नकारात्मकता को बढ़ावा नहीं दे रही...किन्तु यह जरूर कहना चाहती हूँ कि इसे सिर्फ कायरता कहकर किसी भी प्रताड़ना की अनदेखी न की जाए |

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