आज एक ग़ज़ल
मजमून ही न पढ़ पाए दिल की किताब का
क्या फ़ायदा मिला उसे फिर आफ़ताब का
हर पल बसी निगाह में सूरत जो आपकी
फिर रायगाँ है रखना रुख पर हिजाब का
इस ख़ल्क की खूबसूरती होती रही बयाँ
हर बाग में दिखे है नजारा गुलाब का
हाथों में थाम कर के वो रखते रिमोट को
हर घर में पल रहा है इक साथी नवाब का
हल्की हुई गुलाब की लाली जो धूप से
देखा न जाए हमसे उतरना शबाब का
लिखती रही है मधु सदा जोश-ए-जुनून से
मिलता नहीं पता उसे कोई ख़िताब का
--ऋता शेखर 'मधु'
मजमून ही न पढ़ पाए दिल की किताब का
क्या फ़ायदा मिला उसे फिर आफ़ताब का
हर पल बसी निगाह में सूरत जो आपकी
फिर रायगाँ है रखना रुख पर हिजाब का
इस ख़ल्क की खूबसूरती होती रही बयाँ
हर बाग में दिखे है नजारा गुलाब का
हाथों में थाम कर के वो रखते रिमोट को
हर घर में पल रहा है इक साथी नवाब का
हल्की हुई गुलाब की लाली जो धूप से
देखा न जाए हमसे उतरना शबाब का
लिखती रही है मधु सदा जोश-ए-जुनून से
मिलता नहीं पता उसे कोई ख़िताब का
--ऋता शेखर 'मधु'
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