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Channel: मधुर गुँजन
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बाबला- कहानी

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बाबला        
(कहानी पर आपकी राय बहुमूल्य है...इस विधा पर काम करना ठीक है या नहीं? कमियाँ/खूबियाँ बताएँ, धन्यवाद )

बेला की खुशियाँ थामे नहीं थम रही थी| चारो ओर से बधाइयों का ताँता लगा था| मम्मी पापा की इकलौती लाडली का मैट्रिक बोर्ड का परिणाम आ चुका था| अपने स्कूल में तो बेला ने टॉप किया ही था साथ ही जिले में भी दूसरे स्थान पर आई थी| बेला थोडी गम्भीर प्रकृति की थी पर इतनी भी नहीं कि खुशियाँ मनाने के समय नाच गा न सके| पिता की राजकुमारी बिटिया ने उनका नाम रौशन किया था| सबसे कहते फिर रहे थे,”कौन कहता है कि बेटियों से पिता का सर गर्व से ऊँचा नहीं होता| आज तो मैं सातवें आसमान पर हूँ|”

बेला के पिता उस जमाने के थे जब घर की बहुओं का नौकरी करना अच्छा नहीं माना जाता था| किन्तु वह औरतों की आजादी के समर्थक थे| उन्होंने अपनी इंटर पास पत्नी को स्नातक की डिग्री दिलवाई और शिक्षण प्रशिक्षण कोर्स करवाया| उसके बाद नौकरी के लिए राजी हुए और बेला की माँ विद्यालय में शिक्षिका बन गयी|

तब तक बेला का जन्म हो चुका था| बेला के कोख में आने से लेकर जन्म तक और उसके लालन पालन में बेला की माँ को पति और संयुक्त परिवार का भरपूर सहयोग मिला| विचारों के अग्रणी पिता ने दूसरी संतान को लाना उचित नहीं समझा| पिता की लाडली पढने में काफी होशियार थी| विद्यालय के हर कार्यकलाप में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेती और पुरस्कार जीतती| विद्यालय में सबकी चहेती बन गई थी वह|

समय पंख लगाकर तेजी से उड़ चला था| बिटिया की पढाई के लिए हर संभव सहयोग के लिए तत्पर रहते| बेला के रिजल्ट ने साबित कर दिया था कि इस तरह के परिणाम के पीछे घर का वातावरण भी बहुत सहयोगी होता है|

घर में आयोजित हल्के फुल्के समारोह में कुछ रिश्तेदार और पड़ोसी शामिल थे|

‘हलो बेला, बहत बहुत मुबारक हो| और मिस्टर वर्मा, आपको भी बहुत बधाई हो| बिटिया के रिजल्ट से हम सभी बहुत गर्व का अनुभव कर रहे हैं|’ पड़ोस में नए आए अंकल को बेला नहीं पहचानती थी| वह ‘धन्यवाद’ कहकर आगे बढ़ गई|कुछ देर बाद वह अंकल फिर नेहा के सामने थे,’ देखो बेटा, यह है मेरा बेटा बाबला|’

‘अच्छा! हाय”, कहकर बेला ने नमस्ते की मुद्रा में हाथ जोड़ा| उसके बाद बेला ने महसूस किया कि वह जिधर भी जा रही है , उस बाबला की नजरें निरंतर उसका पीछा कर रही हैं| कुछ देर उसने अनदेखी की| बाद में वह असहज महसूस करने लगी| उस वक्त वह यह बात किसी से कह भी नहीं सकती थी| पार्टी खत्म होने से कुछ देर पहले ही बेला अपने कमरे में आकर बैठ गई|

‘’ अरे यार बेला, चल न डांस करते हैं’,सहेली सुवर्णा चहकते हुए कमरे में आ गई|

‘’नहीं सुवर्णा, मेरी तबियत ठीक नहीं लग रही, तू पार्टी एंजॉय कर| मैं थोड़ी देर में आती हूँ|’ बेला को विश्वास था कि तबतक वो लड़का बाबला चला जाएगा|

थोड़ी देर बाद वह कमरे से बाहर आई और सच में उसे न पाकर बहे खुश हुई|

‘बेटा, अब कहाँ एडमिशन लेने का इरादा है’, एक आंटी ने पूछा|

‘महिला कॉलेज या फिर साइंस कॉलेज में’

‘ठीक है बेटा, मेरी शुभकामनाएँ तुम्हारे साथ हैं,’कहकर आंटी ने प्यार से उसे देखा|

दूसरे दिन बेला ने दोनो महाविद्यालयों में फॉर्म भर दिया| प्रथम सूची में ही उसका नाम आ गया, जैसा कि होना ही था| बेला की इच्छा थी कि वह विज्ञान महाविद्यालय में नाम लिखवाए किन्तु पहली बार उसने महसूस किया कि बंधन क्या होता है| दादाजी ने साफ शब्दों में मना कर दिया कि सहशिक्षा वाले कॉलेज में नहीं पढ़ेगी| घर में कोई विरोध न कर पाया या शायद पिताजी भी न चाहते होंगे| तभी तो यह कहकर टाल दिया कि दादा की मर्जी के ख़िलाफ़ नहीं जा सकते| माँ ने भी चुप्पी साध ली| थोड़े बेमन से उसका नाम लिखवा दिया गया|

जब से क्लास शुरू होना था, उसके एक रात पहले का सारा समय रोमांच में बीत रहा था| बेला को खुशी थी कि अब वह स्कूल ड्रेस के बंधन से आजाद हो रही| समय पर प्रार्थना भी नहीं करना होगा| पूरे दिन भी नही रहना होगा जैसे स्कूल में बाँध कर रखा जाता है|अब वह अपनी मर्जी की मालकिन हो जाएगी| तरह तरह के ड्रेस के बारे में सोचती हुई वह सो गई| सुबह उठी तो जल्दी जल्दी उसने सारा काम किया क्योंकि समय पर कॉलेज बस पकड़ना था| समय पर बस स्टॉप पर पहुँच गई| वहाँ पर सीनियर लड़कियाँ भी थीं|

‘वाह बेला, चुड़ीदार में तो बहुत जँच रही’, एक सीनियर दीदी ने कहा तो बेला मुस्कुरा उठी|

‘अच्छा बेला, तुम्हें यह फिल्मी गीत याद है...रेशमी सलवार कुर्ता जाली का’

‘रूप सहा नहीं जाए नखरे वाली का’, आगे की पंक्ति गाते हुए बेला हँस पड़ी| हँसते हुए उसकी नजर थोड़ी दूर खड़े लड़कों पर पड़ गयी| वे सब भी बस के इंतेजार में खड़े थे| वह बाबला भी वहाँ खड़ा था और उसे एक टक देखे जा रहा था| बेला मुँह फेरकर खड़ी हो गई और सोचने लगी ”तो अब ये भी यहीं पर रहेगा, पर यह मुझे घूरता क्यों है’’| तब तक एक के बाद एक दो बसें आ गईं| एक बस लड़कियों की थी और दूसरी लड़कों की|

बस के अन्दर बेला ने राहत की साँस ली| दोनों बसें आपस में रेस लगाती चल रही थीं| कभी लड़कों की बस आगे होती तो लड़के चिल्लाते हुए अपनी खुशी जाहिर करतीं| जब लड़कियों की बस आगे जाती तो लड़कियाँ भी कहाँ पीछे रहतीम| उस समय बस शोर में डूब जाता| करीब पैंतालीस मिनट का समय लगा महिला महाविद्यालय आने में| सारी लड़कियाँ उतरने लगीं| बेला ने देखा कि लड़कों की बस आगे जा चुकी थी|

रंग बिरंगे कपड़ों में नई लड़कियों का हुजूम कॉलेज के अन्दर दाख़िल होने लगा|

‘ओए लालपरी, इधर अइयो जरा,एक आवाज आई|

बेला ने इधर उधर देखा|

‘अरे, इधर उधर क्या देख रही हो| इधर आओ मेरी लालपरी’,और उसके बाद लड़कियों का एक झुंड खिलखिला उठा|

बेला सकुचाती हुई वहाँ गई|

‘बोलिए दीदी’

“दीदी किसको बोल रही’

‘जी आपको,आप हमसे सीनियर हो न’

‘ये कैसे जाना कि हम सीनियर हैं’

बेला चुप रही| उसे अचानक याद आया कि सुवर्णा बता रही थी कि पहले दिन रैगिंग भी होता है| तब ज्यादा जवाब नहीं देना चाहिए|

‘ अब ये बताओ, ये ड्रेस कितने में ली,’ नया सवाल आया|

‘जी, माँ ने खरीदी है’’

‘ओए, यह तो दूध पीती बच्ची है| अभी तक माँ इसके कपड़े खरीदती है’, इतना कहकर वह ठठाकर हँस पड़ी और साथ ही हँस पड़ीं उसकी साथी लड़कियाँ| बेला रुआँसी हो गई| उसने इधर उधर देखा| सामने से वही दीदी आ रही थी जो बस स्टॉप पर मिली थी|

‘क्यों तंग कर रही बेचारी को, अच्छा बेला, एक गाना सुना दो हम सबको’

‘पर हमें तो गाना नहीं आता’,

‘वही सुना दो जो स्टॉपेज पर गा रही थी|

‘अच्छा, रेशमी सलवार कुर्ता जाली का....’बेला ने रुकते हुए किसी तरह से गाया|

‘रूप सहा नहीं जाए नखरे वाली का...’इस बोल को पूरा करते हुए दीदी ने कहा, अब जाओ|

‘क्यों जाने दिया, अभी और रैगिंग लेनी थी न,’ बेला ने जाते जाते सुना|

‘नहीं जी, सीधी है बेचारी, देखा नहीं कैसी रोनी सूरत बना ली थी उसने|’

आज तो दीदी ने बचा लिया, यह सोचती हुई वह आगे बढ़ी| तबतक उन शैतान लड़कियों ने दूसरा शिकार ढूँढ लिया और उसके पीछे पड़ गईं|

वह पहला दिन गुजर गया| नियत समय पर बस भी आ गई| स्टॉप पर वह उतरी और घर जाने लगी| कुछ दूर आगे बढ़ने पर उसने महसूस किया कि कोई उसे देख रहा है| वह झट पीछे मुड़ी तो देखा कि सड़क के पहले मकान की गेट पर वह खड़ा था| तेज गति से बढ़ती हुई आगे जाकर मुड़ी तब उसकी सांस आई|

दूसरे दिन, तीसरे दिन वैसा ही हुआ|

‘’माँ, जब मैं आती हूँ तो आप भी स्टॉपेज पर रहा करो,’बेला माँ से बोली|

‘’क्यों बेटा, क्या बात है’’

‘’वो वो...’इसके आगे वह कह नहीं पाई|

दूसरे दिन जब वह स्टॉप पर पहुँची तो माँ खड़ी थी| वह निश्चिंत होकर चलने लगी| किन्तु वह नजर नहीं आया| शायद माँ के कारण वहाँ पर नहीं था| माँ ने भी कुछ नहीं पूछा|

कॉलेज जाना आना बेला के लिए डरावना होता जा रहा था| लगता है माँ यह सब समझ पा रही थी पर बात क्या है यह जानने में असमर्थ थी| बेला की माँ ने अब दूर से ही नजर रखनी शुरू की| दो तीन दिनों में ही सारा माजरा समझ गयी|

‘बेला, कहो तो मैं उसके घर जाकर उसकी माँ से बात करूँ’|

‘पर क्या बोलोगी माँ, वह कुछ अभद्रता तो नहीं करता न| पर उसका मुझे लगातार देखते रहना अच्छा नहीं लगता| मान लो वो बदमाश हुआ तो कहीं तेजाब...या’

‘न न बेटा, ऐसा नहीं कहते| मैं बात करती हूँ न उससे’|’

‘पर क्या’, इसका जवाब माँ के पास भी नहीं था| कहीं उससे कुछ कहूँ तो बेला के बारे में कुछ उल्टा सीधा कहकर बदनाम न करे या सरेआम दुपट्टा न खींच ले| उस वक्त लड़कों की यह शैतानी प्रायः चलती थी| आज का जमाना नहीं था उस समय, अब तो दुपट्टे भी गुमनामी में जी रहे|

एक दिन बेला कॉलेज से घर पहुँची तो माँ पापा किसी लड़के के बारे में बात कर थे| बेला ने सुना कि लड़का अच्छी नौकरी करता है| घर भी संभ्रांत है| बेला अचकचा कर पूछ बैठी, ‘ये किस लड़के की बात कर रहे आपलोग’

‘तेरे रिश्ते की’

‘क्या, अभी तो मुझे बहुत पढ़ना है’

‘पढ़ लेना बेटा, पढ़ने से कौन रोकता है| शादी के बाद भी पढ़ा जा सकता है| इज्जत से बेटी विदा हो जाए इससे बढ़कर क्या हो सकता है,’ शायद उस लड़के का भय माँ को भी सताने लगा था|

जिस दिन बेला की बारात दरवाजे पर खड़ी हुई उस दिन बेला की फाइनल परीक्षा थी जो वह दे न सकी| दिल में अपार दुःख लिए उस बाबला को कोसती हुई ससुराल के लिए रवाना हो गई|

करीब दो वर्षों के बाद बेला मायके आयी|उसने फिर से इंटर की परीक्षा के लिए फॉर्म भरा था| छूट गई पढ़ाई को वह पुनः थामना चाहती थी जबकि यह आसान नहीं था| पूरे दो महीने की इजाजत मिली थी मायके में रहने की|

जिस दिन वह आयी, शाम को माँ कहीं जाने की तैयारी में थीं |

‘कहाँ जा रही माँ’

‘उस बाबला की बेटी की छठी है , उसकी माँ ने बुलाया है|’

बाबला का नाम सुनते ही बेला के चेहरे पर कड़वाहट फैल गयी|

‘मैं भी चलूँ माँ’, खुद को संयत करते हुए उसने पूछा|

‘चलो’

जब वह वहाँ पहुँची, बाबला की नजर फिर उसे एकटक देखने लगी|

अब बेला को डर नहीं लग रहा था|

‘’क्या कर लेगा, वह खुद बेटी का पिता बन गया है| अब उसे पता चलेगा कि बेटी वालों पर क्या बीतती है,’’ यही सब सोचती हुई रस्म वाले कमरे में गयी|

उसने बिटिया को बेला की गोद में देते हुए कहा,’’इसे आशीर्वाद दो बेला’’|

‘तुझे जीवन में कोई बाबला न मिले जिससे तेरी पढ़ाई छूट जाए’ फुसफुसाते हुए बेला ने कहा|

बाबला को उसके अस्फुट शब्द सुनाई न पड़े|

उसने कहना जारी रखा,’’ बेला, हम सिर्फ पाँच भाई हैं| इसकी कोई बुआ नहीं| काजल का रस्म तुम ही पूरा कर दो न| मुझे शुरु से ही तुम में बहन जैसा फ़ील आता था किन्तु कभी कह न सका| यह संयोग है कि आज तुम आ गई| और यह है राखी जो मैं खरीद कर रखा करता था किन्तु इसे मेरी कलाई पर बाँधने वाली कोई बहन नहीं थी|’’

बेला जड़वत् बैठी रही| उसकी नजरों से उमड़ते स्नेह को वह झेल न सकी और खुद भी आँसू बहाने लगी|

--ऋता शेखर ‘मधु’

थेथर - लघुकथा

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थेथर
सामने नाट्य प्रदर्शन के लिए मंच सजा है| परदा खुलता है|
प्रथम दृश्यः
एक शिक्षक वर्ग में बैठे हैं| उनके सामने कुछ बच्चे बैठे हैं|
‘बच्चों, आज हमलोग कुछ प्रतियोगिताएँ करवाएँगे, आशा है आप सभी अच्छा प्रदर्शन करोगे|’
‘जी सर, हम सभी उस प्रतियोगिता में भाग लेना चाहते हैं,’ दसवीं –ग्यारहवीं के बच्चे उत्साहपूर्वक बोले|
‘ठीक है बच्चों,हम आपको मिट्टी देंगे| आप सभी को एक एक मूर्ति बनानी है| जिसकी मूर्ति सबसे अच्छी होगी उसे इनाम दिया जाएगा|’
सभी बच्चे उत्साहपूर्वक अपने अपने स्थान पर खड़े हो गए| मूर्ति बनाने के लिए सबके पास सूखी मिट्टी से भरी बाल्टियाँ रख दी गईं|
शिक्षक का किरदार निभा रहे बच्चे ने कहा,’ अब आपलोग मूर्तियाँ बनाना शुरू करों|’
सभी बच्चे एक दूसरे को देखने लगे| अपने सामने मिट्टी का ढेर लगाकर उन्होंने पूछा,’ सर मूर्ति कैसे बनाएँ?’
‘क्यों, क्या दिक्कत है’ हल्की मुस्कान के साथ टीचर जी बोले|
‘हमे पानी नहीं दिया गया है, फिर कैसे बनेंगी मूर्तियाँ सूखी मिट्टी से,’ लगभग सभी एक स्वर में बोल पड़े|
तब तक तेज रौशनी वाला बल्ब मंच पर जला| कुछ देर में ही मंच का तापमान काफी बढ़ गया| बच्चे गर्मी से परेशान हो गए|
‘सर, बल्ब ऑफ़ करवाइये, पसीना हो रहा,’ बच्चों की तेज आवाज़ आई|
तभी एक बच्चा, दिनकर चिल्लाया,’ रुकिए सर, बस दो मिनट’
उसने एक रुमाल निकाला| चेहरा और हाथों को पोंछा| रुमाल तरबतर हो गया| फिर उसने पसीने की बूँदों को थोड़ी सी मिट्टी पर निचोड़ दिया| अब उस भीगी मिट्टी से उसने एक डंडी बनाई और उसपर नन्हीं नन्हीं बालियाँ लटका दीं|
मंच का बल्ब बन्द कर दिया गया था किन्तु वातावरण अभी भी गर्म था| मिट्टी की संरचना सूख गई| दिनकर ने पीले रंग से उसे रंग दिया|
पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा| तभी सूत्रधार के रूप में एक कलाकार का पदार्पण हुआ|
‘ मित्रों, हमारी धरती अब सिर्फ सूखी मिट्टी बन चुकी है| बिना बारिश के वह अनाज कैसे पैदा करे यह विचारणीय है| बारिश का पानी रोकने का कोई उपाय नहीं क्योंकि हम सभी धड़ाधड़ जंगल और पेड़ काटते चले जा रहे हैं| जैसे दिनकर ने अपने पसीने से गेहूँ की बालियाँ बनाईं वैसे ही हमारे श्रमिक भी कार्य करते हैं| किंतु सूरज के बढ़ते तापमान ने सब कुछ निगल लिया है| हमारा संदेश आप दर्शकों तक पहुँच पाए, इसी में इस मंचन की सार्थकता है|” दर्शकों ने तालियाँ बजाकर मंचन का स्वागत किया|

द्वितीय दृश्यः
मंच पर दर्शकों की भीड़ नजर आई| उनके बीच से एक आवाज आई,
’ कितने भी मंचन कर लो, इंसानों की प्रजाति थेथर हो चुकी है|’ साथ ही सम्मिलित हँसी की आवाज से नाट्य कलाकारों के चेहरों पर उदासी के भाव तिर गए|
-ऋता शेखर ‘मधु’

अनकहा हो दर्द तब लावा पिघलता है

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रजनी छंद गीतिका

इस जगत में जो सभी से प्रेम करता है
वह तपिश में चाँदनी बनकर उतरता है

ईश से जो भी मिले स्वीकार कर लेना
आसरा के साथ ही विश्वास रहता है

कोंपलें उगती वहीं झरते जहाँ पत्ते
रात के ही गर्भ से सूरज निकलता है

हो समर्पण भाव हरसिंगार के जैसा
देखना कैसे वहाँ पर प्यार पलता है

शांत हो, एकाग्र हो, कहते यहाँ सारे
अनकहा हो दर्द तब लावा पिघलता है

मन बसे हैं भाव दोनों राम या रावण
राम को जो जीतता पल पल निखरता है

-ऋता शेखर मधु

पुत्रीरत्न

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नवरात्र की पूजा पर बैठी नंदिनी ने मोबाइल बजते ही तत्परता से उठाया और बोल पड़ी,
"हलो, पापा, क्या हुआ है?"
"बेटा,बहुत बहुत बधाई ! तू बुआ बन गयी, काजल की रस्म के लिए यहाँ आने की तैयारी कर।"
"अरे वाह ! आपको भी दादा बनने की बहुत बधाई पापा। भाभी कैसी है और वो दोनों छुटकू किस रूप में अवतरित हुए हैं, ये भी बताइये।"
"एक पुत्ररत्न और एक लक्ष्मी, सोमेश की फ़ैमिली पूरी हो गई। बहुत प्यारा परिवार बन गया नन्दिनी,"पापा ने नन्दिनी को जुड़वाँ जन्म लिए बच्चों के बारे में बताया।
"अरे वाह ! पर मैं आपसे नाराज हूँ पापा। आपने नवजात शिशुओं का परिचय ठीक से नहीं दिया|"
"अच्छा, तो यह बता दो क्या ग़लत कहा|"
"पुत्र को गणेश नहीं कहा पर बिटिया को लक्ष्मी कहकर अभी से ही देवी बना दिया आपने। पापा, नवरात्रि के पाठ से यह समझ पा रही हूँ कि स्त्री जीवन स्वयं एक चुनौती है जिसे वह साधारण मानवी के रूप में ही स्वीकार करता है। पढ़ाई, कमाई और सृष्टि निर्माण की शक्ति के समय उसे देवियों के रूप में जाना जा सकता है, पर अभी से क्यो?"
शायद पापा को भी यह बात तर्कसंगत लगी थी तभी  पूछे,"तो क्या कहकर परिचय देता"
"पुत्रीरत्न कहना था,"कहकर नन्दिनी खिलखिला उठी।
"समझ गया, तू आरती कर देवियों की और फ़ोन जरा दामाद जी को दे।"
नन्दिनी ने स्पीकर ऑन किया तब पति को फोन दिया।
"सोमेश के जुड़वाँ बच्चों के जन्मोत्सव में आप और नन्दिनी आमन्त्रित हैं, अवश्य आइयेगा"पापा ने कहा।
"जी अवश्य, पर शिशुओं के परिचय तो दीजिये पापा जी।"
"एक पुत्ररत्न और एक पुत्रीरत्न",
यह सुनते ही नन्दिनी का चेहरा खिल गया और वह घंटी बजाकर गाने लगी, "जय अम्बे गौरी.....
-ऋता शेखर 'मधु'

हे अशोक

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हे अशोक !

वापस आकर
हे अशोक! तुम
शोकहरण
कहला जाओ

लूटपाट से सनी नगरिया
लगती मैली सबकी चदरिया
नैतिकता का उच्चार करो
सद्भावों का संचार करो

प्रीत नीर से
हे अशोक! तुम
जन जन को
नहला जाओ

जितने मुँह उतनी ही बातें
सहमा दिन चीखती रातें
मेघ हिचक जाते आने में
सूखी धरती वीराने में

हेमपुष्प से
हे अशोक! तुम
हर मन को
बहला जाओ

नकली मेहँदी नकली भोजन
पल में पाट रहे अब योजन
झूठ के धागे काते तकली
आँसू भी हो जाते नकली

हरित पात से
हे अशोक! तुम
कण कण को
सहला जाओ

भूमिजा को मिली थी छाया
रावण उसके पास न आया
फिर उपवन का निर्माण करो
हर बाला का सम्मान करो

वापस आकर
हे अशोक! तुम
शोकहरण
कहला जाओ
-ऋता शेखर ‘मधु’
यह रचना अनुभूति के अशोक विशेषांक पर प्रकाशित है...
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पसंदगी की रेंज

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‘हलो, मिस्टर वर्मा, मैने शादी डॉट कॉम पर आपके पुत्र के बारे में पढ़ा| आपको मैं अपनी बेटी की आई डी भेजती हूँ| आप देख लें और पसन्द आए तो हमलोग रिश्ते के बारे में सोच सकते हैं,’ ऊधर से मधुर आवाज में एक महिला बोल रही थीं|

‘जी, बताइए, मैं अपनी ओर से देख ही लेता हूँ क्योंकि अभी ऑनलाइन हूँ| आप चाहें तो कुछ देर लाइन पर बनी रह सकती हैं,’ वर्मा जी ने कहा और साथ ही दिए गए आई डी पर क्लिक भी किया| वहाँ एक प्यारी सी लड़की मोहक मुसक्न से सजी दिख रही थी| पूरी प्रोफ़ाइल देखने के बाद वर्मा जी ने कहा’’, मैडम,लड़की मुझे तो पसन्द आ रही| अब आप अपनी बिटिया का मोबाइल नम्बर दीजिए|’’

‘क्या !,’उधर से अचंभित स्वर उभरा|

‘देखिए मैडम, वह जमाना गया जब माता पिता शादियाँ तय करते थे और बाद में बच्चों की राय ली जाती थी| बच्चे भी ज्यादा विरोध नहीं करते थे| अब बच्चे चुनाव करते हैं, बाद में माता पिता की राय ली जाती है| आप बिटिया का नम्बर दें, मैं अपने पुत्र आशु को दे दूँगा| अपनी सुविधा से दोनों बात कर लेंगे| यदि दोनों ने एक दूसरे के विचारों को पसन्द किया तो फिर हमलोग आगे की बात कर लेंगे| दोनों ही बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में उच्च पदों पर हैं| उनकी पसन्द ही सर्वोपरि है,’ थोड़े से आहत स्वर में मिस्टर वर्मा बोल रहे थे|

इसके पहले भी दो जगहों पर बात आगे बढ़ी थी| एक जगह लड़की ने छोड़ा क्योंकि उसे घर में किसी भी बड़े बुज़ुर्ग को रखना स्वीकार्य नहीं था| एक जगह लड़के ने छोड़ा क्योंकि लड़की ने अँग्रेजी स्कूल से शिक्षा प्राप्त नहीं की थी| मिस्टर वर्मा के अनुसार ये दोनों ही बातें कोई मायने नहीं रखती थीं|

“लड़की किसी के साथ नहीं रहना चाहती तो न रहे| समय के साथ और जरूरतों के अनुसार स्वयं सब ठीक हो जाता है| हर बात को गणित की तराजू पर तौलने से क्या डंडी सीथी मिलेगी ? नहीं न, पहले की शादियों में सामंजस्य बिठा ही लिया जाता था|”

“लेकिन पापा, हम सामंजस्य क्यों बिठाएँ| जब विचार ही नहीं मिलेंगे तो साथ कैसे रहेंगे,”वर्मा जी किसी भी दलील से पुत्र को नहीं समझा पाए|

‘आशु, जिस लड़की ने अँग्रेजी स्कूल से शिक्षा नहीं पाकर भी अपनी मेहनत के बल पर इतनी अच्छी नौकरी पाई है उसे तुम कमतर कैसे आँक सकते हो,’ उस दिन भी पिता पुत्र में वैचारिक मतभेद हो गया था| बाद में पिता ने ही चुप्पी का सहारा लिया|

मन में घुमड़ते हुए विचारों के समंदर में डूबे मिस्टर वर्मा यह भूल गए कि वह फ़ोन पर हैं|

“जी, मैं नम्बर दे देती हूँ,” यह सुनकर उनकी तन्द्रा टूटी|

उन्होंने नम्बर नोट किया और व्हाट्स एप पर आशु को भेज दिया| तुरन्त उभरी दो नीली रेखाओं ने संदेश पढ़ लिये जाने की चुगली कर दी| पहले इस तरह के संदेश पर आशु बिना विलम्ब के फ़ोन करता था किन्तु इस बार इन्तेज़ार के बाद भी उसने फ़ोन नहीं किया|

‘ अच्छा ही है, स्वयं बात कर लेगा तो बताएगा’, यह सोचकर वर्मा जी अपने काम में व्यस्त हो गए|

हर दिन बातें होतीं आशु से, पर उस लड़की के बारे में न पिता ने पूछा और न ही पुत्र ने बताया| एक दिन आशु ने कहा,”पापा, मैं एक महीने से लगातार उस लड़की से बात कर रहा हूँ| लगभग सभी विषयों पर हमारे विचार मिलते हैं| मुझे लगता है कि अब हमें आमने-सामने एक दूसरे से मिल लेना चाहिए| आप उसकी माँ को कहिए कि वह भी आ जाएँ और आप भी चलिए|”

सीधे सपाट शब्दों में कही गई बात वर्मा जी को अच्छी लगी| बेकार की संवेदनाओं में बहकर तो हमारी पीढ़ी बात करती थी| घर में ग़लत को कभी ग़लत कहने की हिम्मत नहीं होती थी|

दिन , समय, स्थान निश्चित किया गया| नियत समय पर सभी पहुँच गए| लड़की जैसी फ़ोटो में थी वैसी ही दिख रही थी| कुछ देर तक बातें हुई , उसके बाद आशु और वह लड़की थोड़ा अलग हट कर बातें करने लगे| वर्मा जी और लड़की की माँ ने तबतक विवाह की सारी रूपरेखा तय ली| घर में मण्डप सजेगा, शहनाइयाँ बजेंगी, इसकी प्रसन्नाता दोनों अभिभावकों को आह्लादित कर रही थी|

थोड़ी देर बाद दोनों वापस आ गए| दोनों के चेहरे पर तनाव की रेखाएँ साफ दिख रही थीं| वर्मा जी का दिल धड़क उठा| लक्षण ठीक नहीं लग रहे थे|

“पापा, अभी हम किसी नतीजे पर नहीं पहुँच सकते| मैं अपना देश नहीं छोड़ सकता| यदि हमारे देश में कुछ कमी है तो हम सभी मिलकर सुधार सकते हैं| देश को हम सभी की जरूरत है| ये क्या बात हुई कि पढ़े लिखे हैं अपने भारत में और सपनों का घर सजाएँ विदेश की धरती पर| यह मुझसे नहीं होगा|”

लड़की सिर झुकाए सुन रही थी| उसने कुछ नहीं कहा| माँ भी कुछ कह पाने में असमर्थ थीं|

इस बार मिस्टर वर्मा ने पुत्र की पीठ को सराहना के भाव से थपथपा दिया| आज पुत्र को वह गर्व भरी दृष्टि से देख रहे थे| पूर्व के मतभेद की दीवार गिर चुकी थी|

औपचारिक अभिवादन के बाद सभी जाने के लिये दरवाजे की ओर बढ़े| आशु जल्दी ही वहाँ से निकल जाना चाहता था| उसका मन अपने आप से ही क्षुब्ध था| बातें करने के दौरान उसने कल्पना भी नहीं की थी कि विदेश में बस जाने का प्रस्ताव भी रखा जा सकता है वरना वह पहले ही नकार देता| उसका गणितीय समीकरण गलत साबित हो गया था पर पिता की थपथपाहट से कुछ शांति अनुभव कर रहा था|

“आशु, मैं तो बस तुम्हारी परीक्षा ले रही थी| मैं भी अपने देश से उतना ही प्यार करती हूँ जितना तुम|”

अचानक आई इस आवाज पर आशु ने पलट कर देखा| लड़की मुस्कुराती हुई खड़ी थी| इधर समधी समधन एक दूसरे को बधाइयाँ दे रहे थे|

-ऋता शेखर “मधु”

देह का तिलस्म - कहानी

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देह का तिलस्म

चारों ओर निशा पसरी हुई थी| निशा के स्याह आँचल पर नन्हें नन्हें सितारे जगमग कर उसकी सुन्दरता बढ़ा रहे थे| एक पूरा चाँद मुस्कुराता हुआ निशा के साँवले मुख को अलौकिक सुन्दरता प्रदान कर रहा था| सृष्टि के निर्माता ब्रम्हा जी धरती पर सागर के किनारे एकांत में बैठे विचारमग्न थे| सिर्फ धरती का कठौर तल, हहराते सागर, चमकता सूर्य, लुभावने सितारे. शातल चाँद के अलावा भी कुछ चाहिए था जो पूरी सृष्टि को मनभावन और चलायमान बना सके| यह सोचते हुए ब्रम्हा जी हाथों में भीगे रेत लेकर सके गोले बनाने लगे| उसे विभिन्न आकार देकर कुछ को धरती पर रहने लायक गढ़ते, कुछ आकार जो समुद्र में रह सकें और कुछ को आसमान में उड़ने लायक बनाया| अब उनकी कल्पना में वे सारे आकार चलने , उड़ने और तैरने लगे| हर गढ़न में अब उन्हें यह ख्याल भी रखना था कि वे शरीर की वृद्धि करें और बाद में खुद जैसे जीवों का निर्माण भी करें ताकि उनकी कृतियों का अस्तित्व बना रहे| अब सवाल यह था कि इन सभी कृतियों में जीवन कैसे भरें| ये तो मात्र देह का निर्माण हुआ था| सोचते सोचते उन्होंने एक प्रकाश पुंज का निर्माण किया| वह पुंज ब्रम्हा जी के सामने आकर पूछने लगा,’प्रभु, मेरे अवतरण का प्रयोजन क्या है’

‘तुम सभी अदृश्य टुकड़ों में विभाजित हो जाओ और अपने पसंद की आकृतियों में समा जाओ| तुम्हारे समाहित होने से ये सभी आकृतियाँ जीवित हो जाएँगी|’’

‘’ लेकिन प्रभु, हम उन आकृतियों में कब तक कैद रहेंगे?’’

‘’सभी आकृतियों का निश्चित जीवन काल होगा| उसके बाद तुम्हें शरीर से मुक्ति मिल जाएगी| ज्योंहि तुम बाहर निकलोगे, वे आकृतियाँ मृत कहलाएँगी| जब तक तुम देह के अन्दर रहोगे, आत्मा या प्राण कहलाओगे|’’

‘’हे प्रभु! इतना बता दीजिए कि हम देह में समाने के बाद क्या व्यवहार करेंगे|’’

‘’पहले तुम सभी आत्माएँ अपनी देह धारण करो| उस देह के अनुरूप जो आचरण उचित होगा वही करना|’’

सभी आत्माओं ने एक एक आकृति ले ली| अब उस निर्जीव निस्तब्ध स्थान पर हलचल मच गयी|तरह तरह की ध्वनियाँ वातावरण में गुँजायमान हो गईं| कुछ वहीं धरती पर उछल कूद करने लगे, कुछ सागर में उतरकर मजे से तैरने लगीं| कुछ ने पंखों का इस्तेमाल किया और आकाश में उड़ गए| ब्रह्मा जी सब देखकर आनंदित होने लगे| तभी एक देह ने दूसरे पर हमला किया और उसकी देह को क्षत विक्षत कर दिया| उस देह के अन्दर की आत्मा आजाद हो गई| किन्तु वह दुखी भी थी क्योंकि आजाद होने के क्रम में देह ने जो यातना झेली वह असहनीय थी| ब्रह्मा जी ने हमलावर प्राणी को बुलाया और पूछा कि उसने ऐसा क्यों किया|

‘’प्रभु, मुझे जो आकृति मिली उसे पेट भरने के लिए दूसरे पशु की देह चाहिए थी,’ इसलिए मैंने उस अनुरूप आचरण किया|ब्रह्मा जी चुप रह गए क्योंकि इसमें उस शिकारी देह की कोई गल्ती नहीं थी| उसके निर्माता तो वही थे| उधर आसमान में उड़ने वाली एक देह ने अपने से छोटी देह वाली एक आकृति को गिरा दिया था| सृजन के साथ विध्वंस का सिलसिला होते देख ब्रह्मा जी चिंतामग्न हो गए|

अब वे ऐसी आकृति का निर्माण करना चाहते थे जो आपस में प्यार से रह सकें| इसी क्रम में दो नन्हीं आकृतियाँ गढ़ी गयीं जो बिल्कुल एक समान थीं| उन्हें समान बुद्धि और समान ताकत भर दिए| एक खासियत और दी कि वह अपनी जिह्वा का उपयोग करके तरह तरह की आवाजें निकाल सकते थे| अपनी इस कृति पर ब्रह्मा जी निहाल हो गए| उन्हें पूरा विश्वास था कि इन देहों में जाने वाले प्राण प्यार से रहेंगे| अब उन्होंने सृष्टि को आगे बढ़ाने के ख्याल से उनकी काया में थोढ़ा सुधार किया और दोनों मिलकर सृष्टि को आगे बढ़ा सकें, इसके लिए थोड़े से अंग परिवर्तन कर दिए| अब उन्होंने आत्माओं को आज्ञा दी कि अपनी पसंद की किसी देह में प्रविष्ट हो जाओ| आत्माओं ने प्रभु की आज्ञा का पालन किया और देः में प्रविष्ट हो गए| देह और आत्मा का यह साथ अत्यंत आह्लादकारी साबित हुआ| दोनों एक दूसरे की ओर आकर्षित हुए और प्रेमपूर्वक रमणीय स्थल चुनकर रहने लगे|

अब ब्रह्मा जी निश्चिंत हो गए कि उनका काम पूरा हो गया| आखिरकार उन्होंने देह और आत्मा का सुन्दर समायोजन कर लिया था|

दिन बीत चले समय आने पर दोनों काया ने मिलकर नयी काया का निर्माण किया| जिस काया ने नन्ही काया को खुद में समेटकर रखा था वह उसकी देखरेख में व्यस्त हो गई| स्वयं को उपेक्षित होता देख दूसरी काया नाराजगी जाहिर करने लगी| अब उनके बीच उपालम्भों का आदान प्रदान होने लगा| जब बात असह्य होने लगीतो दोनों अपनी शिकायतें लेकर प्रभु के पास पहुँचे| प्रभु ने उनकी बातें सुनी और कहा,’ तुम दोनों ने मेरी उम्मीद को धराशायी कर दिया| आखिर ये शिकायतें कैसी|’

‘प्रभु, आपने एक काया में ममता भरी और वह नम्रता सीख गयी| दूसरे में ताकत थी, वह अहंकारी हो गया,’ममतामयी काया कह उठी|

‘प्रभु, अब यह सवाल जवाब करने लगी है| उसने बुद्धि का उपयोग शुरू कर दिया है| मैं उसे तर्क से नहीं बल्कि ताकत से ही हरा सकता हूँ,’ये अहंकारी देह की आवाज थी|

‘क्या तुम दोनों आत्माएँ प्रेमपूर्वक नहीं रह सकतीं,’ प्रभु अपनी ही बनायी रचना के सामने विनीत भाव से बोले|

‘रह सकते हैं, जब हम इस देहरूपी बंधन से आजाद हो जाएँगे| जब तक हम दोनों के पास काया, वाणी और बुद्धि रहेगी, तर्क वितर्क चलते रहेंगे| इन सबके बावजूद भी हम एक दूसरे का ख्याल रखेंगे| यह देह का तिलस्म है प्रभु जी| अब आप भी इसमें कुछ नहीं कर सकते,’यह कहकर दोनों आत्माएँ ब्रह्मा को उनके ही तिलस्म में हैरान करके

एक दूसरे का हाथ पकड़कर मुस्कुराती हुई ओझल हो गईं|

-ऋता शेखर ‘मधु’

मानव तभी तक जीवित है जब तक उसके शरीर में आत्मा का वास है...वरना मृत है| आत्माओं का व्यवहार देह पाने के बाद बदल क्यों जाता है...चिंतन से उपजी एक कहानी आपको भी अवश्य पसंद आएगी|अपनी राय देंगे तो लेखन में सुधार जारी रहेगा, धन्यवाद मित्रों|

प्रॉपर्टी - लघुकथा

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प्रॉपर्टी

"अभी आ रही हो, इतनी रात गए कहाँ थी तुम?"
"मैं तुम्हारी प्रॉपर्टी नहीं जो तुम मुझपर बन्धन लगाओ"
"प्रॉपर्टी कैसे नहीं, तुम्हारे पिता ने तुम्हे दान दिया है मुझे। तुम्हारे प्रति जिम्मेदारी है मेरी"
"अब भूल जाओ, कोर्ट ने धारा 497 हटाते हुए कहा है कि पत्नी पति की प्रॉपर्टी नहीं"
"हम्म"
"सुनो, कल तुम मेरे साथ चलना। पड़ोस में जो नया आदमी आया है, मुझे अजीब नजरों से घूरता है। तुम्हे मेरा साथ देखेगा तो डरेगा"
"रक्षा तो अपनी प्रॉपर्टी की की जाती है"
-ऋता

राशिफल - लघुकथा

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राशिफल

सुबह के पाँच बजे से सुनंदा की दिनचर्या शुरू हो जाती। सबसे पहले बच्चों के मनपसन्द नाश्ते और लंच बनाती। उन्हें पैक करती। उधर बच्चे स्कूल के लिए स्वयं तैयार हो जाते। इतना करते हुए छह बज जाते और पतिदेव सुरेश भी तबतक उठकर चाय की फरमाइश कर देते। सास, ससुर और पति के लिए वह एक साथ ही चाय बनाती। इस दौरान उसके कान बालकनी की तरफ लगे रहते जहां गोल गोल मुड़ा ,नन्ही रस्सी में बंधा अखबार 'टप'से गिरता और वह दौड़ लगाकर बालकनी में पहुँच जाती क्योंकि एक बार अखबार पतिदेव के हाथ लगी तो मिलने से रही।
जल्दी जल्दी तीन चार पन्ने पलटती, कुछ पढ़ती और वापस अखबार मेज पर रखकर रसोई में लौट जाती। ऑफिस जाने के समय पति जब बाहर निकलने लगे तो सुनंदा ने धीरे से कहा,"आज वाणी और क्रोध पर नियंत्रण रखना उचित रहेगा। ऐसा आपकी राशि में लिखा है।"
पति के क्रोधी स्वभाव से वह हमेशा सशंकित रहती थी।सुनंदा की ओर कड़ी नजर से देखकर सुरेश चले गए।
"बहु, राशिफल में आज धनप्राप्ति का भी योग है, ये क्यों नहीं बताया सुरेश को" , सास ने अखबार पढ़ते हुए पूछा।
सुनंदा मुस्कुराकर चुप रह गई।
शाम को सुरेश घर आये तो बहुत खुश थे। आते ही माँ को बताया,"आज मुझे एक नई प्रोजेक्ट मिली है"
"बेटा, आज के राशिफल में यह भी लिखा था जिसे सुनंदा ने नहीं बताया।"
"माँ, आज ऑफिस जाते ही बॉस किसी बात पर उलझ गया। मैं भी उससे बड़ी बहस करना चाह रहा था तभी सुनंदा की बात याद आ गई और मैन धैर्य से काम लिया।उसके बाद बॉस ने वह प्रोजेक्ट मुझे ही देने का फैसला किया"
"अरे वाह !"कहती हुई सास ने बहु को हल्की मुस्कान के साथ देखा
"धनप्राप्ति से अधिक महत्वपूर्ण व्यवहार पर नियंत्रण है, मान गए तुम्हारी सोच को बहु।"
"जी"कहकर सुनंदा ने मेज पर गरम गरम चाय और पकौड़े रख दिये।
-ऋता

धातु के बरतन - लघुकथा

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धातु के बरतन

सास और बहू का घर अलग अलग शहरों में था।


"मम्मी जी, आपने मलने के लिए सारे बर्तन बाई को दे दिए। बर्तनों पर खरोंच आएगी तो भद्दे दिखेंगे।"बर्तनों का अंबार देखकर सास के घर आई बहु आश्चर्य से बोल पड़ी।

"नहीं बहु, तेज रगड़ से ये और भी चमक उठेंगे, धातु के हैं न।"

"मम्मी जी, हमारे यहाँ तो आधे से अधिक बर्तन मुझे ही साफ करने होते हैं। काँच के शौफ़ियाना बर्तन, नॉन स्टिक तवा कड़ाही, ये सब बाई को नहीं दे सकती। खरोंच लगा देगी या काँच का एक भी गिलास या कटोरी टूट गयी तो डिनर सेट खराब हो जाएगा।"

"तभी तो आजकल के रिश्ते भी नर्म और नाजुक हो गए हैं। क्रोध या अहम की हल्की खरोंच भी उन्हें बदरंग कर सकती है।"

"क्यों, पहले रिश्ते बदरंग नहीं होते थे क्या मम्मी जी।"

"होते थे, पर उन रिश्तों को संभालने के लिए प्यार के साथ कठोरता से भी काम लिया जाता था और उनमें निखार बढ़ता जाता था। धातु के बर्तनों को अपने गिरने या रगड़े जाने की परवाह नहीं होती । "
-ऋता

शरद चाँदनी

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गीत का प्रयास

मौसम की आवाजाही में
हवा सर्द या हुई गरम

शरद चाँदनी शीतल बगिया
चमक उठे दुधिया कचनार
पुष्पदलों के हिंडोलों पर
झूल रहे नन्हें तुषार
अन्दर बाहर होती साँसें
अहसासों को करें नरम

शांत चित्त स्थिर मन प्याला
श्वेत क्षीर पर अमृत वर्षा
मेवा केसर पिस्ता मिलकर
दुग्ध अन्न का कण कण हर्षा
मुरली की मीठी धुन पर
दौड़ी राधा छोड़ शरम

जित देखें तित कान्हा दिखते
सभी गोपियाँ हुईं मगन
राधे राधे जपते कान्हा
एकाकार हुई प्रेम लगन
महारास की पावन बेला में
सुख की अनुभूति बनी परम

मन के सारे द्वेष मिटाकर
प्रभु में अपना ध्यान लगा
पूर्ण चन्द्र की सुन्दरता में
तन में आभा का ज्ञान सजा
इहलोक की झूठी माया से
स्वयं ही मिट जाएगा भरम

मौसम की आवाजाही में
हवा सर्द या हुई गरम

-ऋता

होते हैं दिखते नहीं, होते कई हजार

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होते हैं दिखते नहीं, होते कई हजार।
मन के भीतर के बने, तोरण वाले द्वार।।
तोरण वाले द्वार,सहज होकर खुल जाते।
मन के जो शालीन, मार्गदर्शक बन आते।
कहे ऋता यह बात, व्यंग्य से रिश्ते खोते।
हवा गर्म या सर्द, नहीं दिखते पर होते।।
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नारंगी शुभता रचे, श्वेत दलों के साथ।
धरती पर गिरकर चढ़ें, शंकर जी के माथ।।
शंकर जी के माथ, निखर कर ये इतराते।
लिए समर्पण भाव, गौरवान्वित हो जाते।
मधुर धुनों के बीच, छाप छोड़े सारंगी।
पारिजात के मध्य, रचे शुभता नारंगी।।
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रातें ज्यों सूनी हुईं, पसर गयी है याद।
पल पल युग युग सा लगे, नीरव हैं संवाद।।
नीरव हैं संवाद, हृदय दूर कहीं भटके।
चिंतन की भरमार, लगाते सौ सौ झटके।
ऋता बघारे ज्ञान, मधुर हैं उसकी बातें।
विचरण करते छंद, हुईं सूनी ज्यों रातें।।

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धरती की है सम्पदा, हरे हरे ये पेड़
रे मनुज! निज स्वार्थवश, तू मत इनको छेड़।।
तू मत इनको छेड़, रूठ जाएगी छाया।
सूखेंगे जब खेत, चली जाएगी माया।
छींट ऋता कुछ बीज, जहाँ धरती है परती।
बढ़े मनुज की कीर्ति, हरी हो ज्यों ज्यों धरती।।
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बालक हो या बालिका, दोनों हैं अभिमान।
एकरूप शिक्षा मिले, इतना रखिए ध्यान।।
इतना रखिए ध्यान, पुष्ट हो जाएं तन से।
नज़रों से सम्मान, शिष्टता छलके मन से।
ऋता कहे यह बात, वही है अच्छा पालक।
सदा रखे समभाव, बालिका या हो बालक।।
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नैतिकता - लघुकथा

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"ममा, आप पटाख़े ले आये, शाम को दो घण्टे का समय रखा गया है जहाँ सब मिलकर पटाख़े फोड़ेंगे"

"हाँ बेटा, सब तरह के पटाख़े लायी हूँ। सुतली बम, रॉकेट बम, धरती बम, आलू बम, मल्टीकलर फुलझड़ियां...सब कुछ।"


"ममा, आप कितने अच्छे हो। लव यू ममा। समय हो रहा पार्क में इकट्ठा होने का। आप तैयार हो जाएं, मैं भी आ रहा हूँ।"

पार्क में जाते हुए ममा ने मोबाइल ऑन किया।

छह सौ लाइक और पाँच सौ कमेंट्स आ चुके थे उनकी दस मिनट पहले डाली गई इस पोस्ट पर,
"पटाखों से वायु प्रदूषण होता है, बुज़ुर्ग, बच्चों और पशुओं का ख्याल रखें। पर्यावरण को शुद्ध रखना हमारी नैतिक जिम्मेदारी है।"
-ऋता

मन के भीतर धैर्य हो, अधरों पर मुस्कान-कुंडलिया

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जीवन यात्रा अनवरत, चली सांस के साथ |
मध्यम या फिर तीव्र गति, स्वप्न उठाती माथ ||
स्वप्न उठाती माथ, कभी रोती या हँसती |
करती जाती यत्न, राह से कभी न हटती|
पढ़ कर हर पग पाठ,'ऋता''बनती है छात्रा|
चुक जाएगी सा़ंस, रुकेगी जीवन यात्रा||

जिनके हिय में हरि बसे, वे हैं साधु समान|
परहित को तत्पर रहें, लेकर के संज्ञान|| 
लेकर के संज्ञान, स्वयं आगे आ जाते |
भेदभाव को छोड़, सबको गले लगाते |
'मधु डूबी मझधार, सहारा बनते तिनके|
होते साधु समान, हृदय में हरि हैं जिनके ||'

ममता की जो खान है, घर की है वह जान |
बिन बोले सब कुछ सहे, त्यागे निज अरमान ||
त्यागे निज अरमान, उसे कहते हैं नारी |
बेलन, शिक्षा के साथ, जीतती दुनिया सारी ||
'मधु'को होता गर्व, देखकर उनकी क्षमता |
मन की वह मज़बूत, जोड़ती जाती ममता ||

माना जीवन -पथ नहीं, होता है आसान।
मन के भीतर धैर्य हो, अधरों पर मुस्कान।।
अधरों पर मुस्कान, राह को सरल बनाती,
खग -गुंजन के साथ, ऋचा वेदों की आती।।
भोर-निशा का राज, प्रकृति से हमने जाना।
पतझर संग बसन्त,राह जीवन की माना।

-ऋता शेखर 'मधु'





कलकल नदिया है बही, छमछम चली बयार -कुंडलिया

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कलकल नदिया है बही, छमछम चली बयार |
गिरिराज हैं अटल खड़े, लिए गगन विस्तार ||
लिए गगन विस्तार, हरी वसुधा मुस्काई ,
दूर्वा पर की ओस, धूप देख कुम्हलाई ||
तितली मधु को देख, मटक जाती है हरपल ,
छमछम चली बयार, बही है नदिया कलकल ||

गरिमा बढ़ती कार्य से, होता है गुणगान |
जग में सूरज चाँद सम, मिले सदा सम्मान||
मिले सदा सम्मान, नाम जग में होता है,
करते जो आलस्य, स्वप्न उनका खोता है |
ऋता करे स्वीकार, सतत प्रयत्न की महिमा,
होता गुणगान, कार्य से बढ़ती गरिमा ||

मन मन्दिर में शोभते, शिव सम सरल विचार |
सुधा-कलश को बाँटकर, गरल करें स्वीकार ||
गरल करें स्वीकार, जगत रौशन कर जाएँ ,
शीतल विल्व समान, मनः संताप मिटाएँ ||
मधु फूलों के बाग, सोहते ऋतु मगसिर में ,
शिव सम सरल विचार, शोभते मन मन्दिर में||
--ऋता शेखर 'मधु'


दो लघुकथाएँ

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1.
समझौता
घर में चाहे जितने भी बदलाव किए जाते मगर बैठक के मुख्य द्वार के एक ओर दो सजी कुर्सियाँ वापस रख दी जाती थीं| एक कुर्सी पर करीने से एक तुलसी माली टँगी रहती | दूसरी कुर्सी पर एक छड़ी, एक चश्मा और एक पेन रहते थे| सजावट के ख्याल से छड़ी पर सुनहरी मूठ लगवा दी गई थी और चश्मा को कलम के साथ सुन्दर पारदर्शक डब्बे में बंद किया गया था|

एक बार शरद ने पूछा था,'पापा, इन कुर्सियों पर रखी माला, छड़ी, कलम और चश्मे को हम अन्दर के शो बॉक्स में भी रख सकते हैं न, यहाँ ही क्यों?''
'बेटा, इन कुर्सियों पर मेरी माँ और पिताजी बैठा करते थे| जब भी मैं कुछ गलत करने की सोचता हूँ तो पिता जी की यह छड़ी मुझे धमकाती है| किसी गहरी समस्या पर सोचता हूँ तो चश्मा मुझे दूरदर्शिता रखने को कहता है| यह कलम मुझे कहती है कि कभी गलत काग़ज़ पर हस्ताक्षार न करना| माँ की माला धर्म की राह दिखाती है|'

'वह तो ठीक है पापा, पर अन्दर भी तो शो बॉक्स में रख सकते हैं न', शरद ने दोहराया|

'रख तो सकते हैं बेटा, फिर वह सजावट का सामान बन कर रह जाएगा| मुख्य द्वार पर बुज़ुर्गों के रहने का अहसास भी घर को कई आपदाओं से बचाता है| घर के सदस्य स्नेहाकर्षण से बँधे रहते हैं|'

तभी शरद का मोबाइल बज उठा| वहाँ शालिनी का नाम चमक रहा था|

'शरद, पापा ने यादों के कचरे को मेन डोर से हटाया या नहीं,'मोबाइल पर जोर से कही गई बहू की आवाज़ धीमे से दिनेश बाबू के कानों में पड़ गई| शरद का उत्तर जानने के लिए वे कुछ देर वहीं ठिठक गए|

'नहीं यार, लाख गुण हों हमारे बुज़ुर्गों में पर उन्हें समझौता करना नहीं आता,'अन्दर कमरे की ओर जाता हुआ शरद कह रहा था|

कुछ देर बाद शरद बाहर जाने के लिए दरवाजे पर पहुँचा तो वहाँ कुछ खाली खाली सा लगा| ध्यान देकर देखा तो दोनों कुर्सियाँ गायब थीं| अचकचा कर वह पापा, पापा बोलता हुआ उनके कमरे में गया| सामान सहित कुर्सियाँ वहीं रखी थीं| दिनेश बाबू के पलंग पर चारों ओर पुस्तक के पन्ने बिखरे पड़े थे और पुस्तक का मुखपृष्ठ उनके हाथों में था जिसे वे अपलक देख रहे थे|
अभी एक सप्ताह पहले ही दिनेश बाबू ने बड़े गर्व से 'मेरे बच्चे मेरा संस्कार'नामक अपनी पुस्तक को लोकार्पित किया था|

'पापा, ये क्या किया आपने?'विह्वल स्वर में शरद ने कहा|
'समझौता', दिनेश बाबू की आवाज़ स्थिर थी|

--ऋता शेखर 'मधु'
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2.
दर्द

फेसबुक पर सुमित्रा ने लिखा,
"कल मैंने एक सिनेमा देखा-हाउसफुल-3 जिसमें लँगड़ा, गूँगा और अँधा बनकर सभी पात्रों ने दर्शकों का खूब मनोरंजन किया..."
बस पाँच मिनट ही बीते थे यह लिखे हुए कि इनबॅाक्स की बत्ती जली|
ये तो तुषार का मेसेज है, सोचती हुई सुमित्रा ने मेसेज़ खोला|
'दीदी जी, विकलांग क्या मनोरंजन की वस्तु हैं? 'यह पढ़कर सुमित्रा का दिल धक् से रह गया| तुषार सुमित्रा का फेसबुक मित्र था| दोनों पैरों से लाचार तुषार कलम का धनी था| उसकी लिखी रचनाएँ बहुत लोकप्रिय होती थीं| अभी हाल में ही विकलांग कोटि के द्वारा उसकी नौकरी एक सरकारी विद्यालय में लगी थी|
अभी सुमित्रा सोच ही रही थी कि क्या जवाब दे, तुषार का दूसरा मेसेज़ आ गया|
'दीदी जी, स्वस्थ इंसान विकलांगों के दर्द कभी महसूस नहीं कर सकते तभी तो उनके किरदार निभाकर हास्य पैदा करते हैं|'
सुमित्रा ने कुछ सोचकर कर एक फ़ोटो पोस्ट किया जिसमें वह एक प्यारी सी लड़की के साथ खड़ी थी| उस लड़की की आँखें बहुत सुन्दर थीं|
'बहुत प्यारी बच्ची है दीदी, ये कौन है?'
'मेरी छोटी बहन जो देख नहीं सकती| समय से पूर्व जन्म लेने के कारण बहुत कमजोर थी तो इसे इन्क्युबेटर में रखा गया था| नर्स ने बिना आँखों पर रूई रखे उच्च पावर का बल्ब जलाकर
सेंक दे दिया जिससे इसकी आँखों की रौशनी छिन गई| यह बात तब पता चली जब वह आवाज होने पर अपनी प्रतिक्रिया तो देती थी किन्तु नजरें नहीं मोड़ती| यह पता चलने पर हमारे परिवार पर जो वज्रपात हुआ होगा वह तो तुम समझ सकते हो न तुषार| मैंने फेसबुक पर यह तो नहीं लिखा कि यह सिनेमा देखकर मुझे मजा आया|'
'सॉरी दीदी जी'
'सॉरी की बात नहीं तुषार, दर्द से हास्य पैदा करना ही तो दुनिया की आदत है| अब बताओ तो, विकलांग कौन है? '
तुषार ने खिलखिला कर हँसने वाली बड़ी सी स्माइली भेजी और सुमित्रा ने चैन की साँस ली|
--ऋता शेखर मधु 

ऐसा है उपहार कहाँ......

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ऐसा है उपहार कहाँ......

नया वर्ष तम सारे हर ले
ऐसा है उपहार कहाँ
चले संग जो सदा हमारे
वह जीवन का सार कहाँ
धरती की ज्वाला ठंडी हो
नदिया में वह धार कहाँ
बिन डगमग जो पार उतारे
वैसी है पतवार कहाँ
उठे हाथ जो सदा क्षमा को
ऐसे रहे विचार कहाँ
एक बात जो सर्वम्मत हो
वह सबको स्वीकार कहाँ
बिन बोले जो समझे सबकुछ
बहता है वह प्यार कहाँ
कोई न भूखा सो पाए
जग में वह भंडार कहाँ
अहसास हृदय को छू जाए
लेखन में व्यापार कहाँ
सिर्फ प्रीत के शब्द मिलें
होता ऐसा हर बार कहाँ
मन बन जाये रमता जोगी
मनु, सुन्दर संसार यहाँ।
-ऋता शेखर मधु

आखिर ऐसा क्यों हुआ,समझाओ श्रीमान

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गुलमोहर खिलता गया, जितना पाया ताप |
रे मन! नहीं निराश हो, पाकर के संताप |।१

उसने रौंदा था कभी, जिसको चींटी जान।
वही सामने है खड़ी, लेकर अपना मान।।२

रटते रटते कृष्ण को, राधा हुई उदास।
चातक के मन में रही, चन्द्र मिलन की आस।।३

रघुनन्दन के जन्म पर, सब पूजें हनुमान।
आखिर ऐसा क्यों हुआ,समझाओ श्रीमान।।४

आलस को अब त्याग कर, करो कर्म से प्यार।
घिस-घिस कर तलवार भी, पा जाती है धार।।५

जीवन है बहती नदी, जन्म मृत्यु दो कूल।
धारा को कम आँक कर, पाथर करता भूल।।६

ऋता




जागो वोटर जागो

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जागो वोटर जागो

अपने मत का दान कर, चुनना है सरकार।
इसमें कहीं न चूक हो, याद रहे हर बार।।
याद रहे हर बार, सही सांसद लाना है।
जो करता हो काम, उसे ही जितवाना है।
सर्वोपरि है देश, जहाँ पलते हैं सपने।
'मधु'उन्नत रख सोच, चुनो तुम नेता अपने।।१

जिम्मेदारी आपकी, चुनने की सरकार।
सजग भाव से लीजिये, अपना यह अधिकार।।
अपना यह अधिकार, भला क्योंकर खोना है।
देकर अपना वोट, वहाँ शामिल होना है।
पक्की कर लो 'ऋता', चुनावी हिस्सेदारी।
चुनने की सरकार, हमारी जिम्मेदारी।।२

जागो नेता देश के, खूब बजाओ ढोल।
जी भर-भर के खोल दो, इक दूजे की पोल।।
इक दूजे की पोल, बड़ी लगती है प्यारी।
भाषाओं की लोच, निरीह लगे बेचारी।
त्यागो 'मधु'आलस्य को, वोट देने को भागो।
दो झूठों को सीख, देश की जनता जागो।।३

जनशासन में वोट का, सबको है अधिकार|
योग्य पात्र को तौलकर, बटन दबाओ यार||
बटन दबाओ यार, यही है भागीदारी |
दलबदलू के साथ ,न करना रिश्तेदारी|
स्वयं रहे जो नेक, निभाता वह अनुशासन|
'ऋता'है खुशनसीब, यहाँ पायी जनशासन||४

सारे नेता भ्रष्ट हैं, रखें न ऐसी सोच|
प्रजा कुशल है जौहरी, कहाँ रहे फिर लोच||
कहाँ रहे फिर लोच, परख कर लायें हीरा|
ढूँढ निकालें आप, उष्ट के मुँह से जीरा|
'मधु', तुम जाओ बूथ, वोट दो सुबह सवारे|
रखो न ऐसी सोच, भ्रष्ट हैं नेता सारे ||
--ऋता शेखर 'मधु' 

धरती को ब्याह रचाने दो

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धरती को ब्याह रचाने दो
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धरती ब्याह रचाती है
पीले पीले अमलतास से
हल्दी रस्म निभाती है
धानी चुनरी में टांक सितारे
गुलमोहर बन जाती है
देखो, धरती ब्याह रचाती है।


आसमान के चाँद सितारे
उसके भाई बन्धु हैं
लहराते आँचल पर निर्मल
बहता जाता सिंधु है
ओढ़ चुनरिया इंद्रधनुष की
देखो, धरती ब्याह रचाती है।

बने पुजारी सप्तऋषि
ऋचाएँ वेद सुनाती हैं
नन्दन कानन में वृक्ष लताएं
झूम झूम लहराती हैं
छुईमुई बन कर सिमटी हुई
देखो, धरती ब्याह रचाती है।

इंसानों ने छीन लिया है
उसकी ठंडी छाया को
खेतों में वह ढूँढ रही
स्वर्ण फसल की काया को
वहाँ खड़े भवनों में धरती
कैसे ब्याह रचाएगी ।

मखमली गलीचे दूर्वा के
धूमिल पड़े सड़कों के नीचे
पवन बसन्ती धुआँ धुआँ है
कलियाँ सूखीं अँखियाँ मीचे
वन्दनवार फिर कहाँ बनेंगे
सुमन-हार कहाँ से लाएगी

इंसानों!
लौटा दो सुषमा उसकी
पृथ्वी को स्वर्ग बनाने दो
हम सब नाचेंगे बन बाराती
धरती को ब्याह रचाने दो।
--ऋता
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