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Channel: मधुर गुँजन
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मन में जले जो दीप अक़ीदत का दोस्तो

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नभ अब्र से भरा हो निहाँ चाँदनी रहे
तब जुगनुओं से ही यहाँ शबगर्दगी रहे

मन में जले जो दीप अक़ीदत का दोस्तो
उनके घरों में फिर न कभी तीरगी रहे

कटते रहे शजर और बनते रहे मकाँ
हर ही तरफ धुआँ है कहाँ आदमी रहे

आकाश में बची हुई बूँदें धनक बनीं
हमदर्द जो हों लफ़्ज़ तो यह ज़िन्दगी रहे

हर उलझनों के बाद भी ये ज़िन्दगी चली
बचपन के जैसा मन में सदा ताज़गी रहे

*गिरह
भायी नहीं हमें तो कभी चापलूसियाँ
मिलते रहे सभी से मगर अजनबी रहे(ज़नाब निदा फ़ाज़ली)

-ऋता शेखर ‘मधु’
अब्र-बादल
निहाँ- छुपी रही
शबगर्दगी-रात की पहरेदारी

रास्तों को ग़र्द से पहचान लेती मुफ़लिसी

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ग़ज़ल

बेबसी की ज़िन्दगी से ज्ञान लेती मुफ़लिसी
मुश्किलों से जीतने की ठान लेती मुफ़लिसी


आसमाँ के धुंध में अनजान सारे पथ हुए
रास्तों को ग़र्द से पहचान लेती मुफ़लिसी

बारिशों में भीगते वो सर्दियों में काँपते
माहताबी उल्फ़तों का दान लेती मुफ़लिसी

भूख की ज्वाला बढ़ी तब पेट पकड़े सो गए
घ्राण से ही रोटियों का पान लेती मुफ़लिसी

धूप को सिर पर लिए जो ईंट गारा ढो रहे
वो ख़ुदा के हैं क़रीबी मान लेती मुफ़लिसी

ठोकरों से भी बिखर कर धूल जो बनते नहीं
पर्वतों से स्वाभिमानी शान लेती मुफ़लिसी

यह ख़ला है ख़ूबसूरत बरक़तें होती जहाँ
गुलशनों में शोख़ सी मुस्कान लेती मुफ़लिसी

-ऋता शेखर ‘मधु’

जिंदगी में हर किसी को है किसी का इन्तिज़ार

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इन्तिज़ार

सर्वशक्तिमान को है बंदगी का इन्तिज़ार
जिंदगी में हर किसी को है किसी का इन्तिज़ार

लाद कर किताब पीठ पर थके हैं नौनिहाल
'वो प्रथम आए', विकल है अंजनी का इन्तिज़ार

पढ़ लिए हैं लिख लिए हैं ज्ञान भी वे पा लिए हैं
अब उन्हें है व्यग्रता से नौकरी का इन्तिज़ार

बूँद स्वाति की मिले, समुद्र को लगी ये आस
तलछटी के सीप को है मंजरी का इन्तिज़ार

ब़ाग़वाँ को त्याग कर विदेश को जो चल दिये हैं
निर्दयी वो भूल जाते भारती का इन्तिज़ार

--ऋता शेखर 'मधु'

करामात होती नहीं ज़िन्दगी में

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निग़ाहों की बातें छुपाने से पहले
नज़र को झुकाए थे आने से पहले

नदी के किनारे जो नौका लगी थी
बहुत डगमगाई बिठाने से पहले

जो आज़ाद रहने के आदी हुए थे
बहुत फड़फड़ाए निभाने से पहले

करामात होती नहीं ज़िन्दगी में
पकड़ना समय बीत जाने से पहले

बहन की दुआ आँक पाते न भाई
कलाई पे राखी सजाने से पहले

दफ़ा हो न जाए सुकूँ ज़िन्दगी का
ऋता सोचना आजमाने से पहले

ऋता शेखर 'मधु'

122*4

कोमल घरौंदे रेत के वो, टूटकर बिखरे रहे-हरिगीतिका

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नौका समय की जब बनी वो, अनवरत बहने लगी |
मासूम बचपन की कहानी, प्यार से कहने लगी ||
कोमल घरौंदे रेत के वो, टूटकर बिखरे रहे |
हम तो वहीं पर आस बनकर, पुष्प में निखरे रहे ||1||

तरुणी परी बन खिलखिलाई, चूड़ियों में आ बसी |
अनुराग की वो प्रीत बनकर, रागिनी में जा बसी ||
वो बंसरी में बंदिनी थी, कृष्ण की राधा बनी |
नक्षत्र सत्रह में मिली वो, रात अनुराधा बनी ||2||

सजनी सजन को भा रहा अब, श्रावणी पावन पवन |
दौलत बना है तर्जनी में, वो अँगूठी का रतन ||
बुलबुल बनी पीहर गई वो, डाल पींगें झूलती |
‘’मेरा बसेरा है कहाँ अब’’, टीस को वो भूलती ||3||

नानी बनी, आया बुढ़ापा, लौट आया बचपना |
बढ़ती लकीरों में सजाई, नित नई अभिकल्पना ||
गुड़िया बना गुझिया पिरोती, और कहती थी कथा |
संसार में अनमोल बनना, ना झगड़ना अन्यथा ||4||
-ऋता शेखर ‘मधु’

धूप एक नन्हीं सी

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धूप एक नन्हीं सी

धुंध को ठेल कर
हवा से खेलकर
धूप एक नन्हीं सी
धरती पर आई


बगिया के फूलों पर
ओज फैलाती है
फुनगी पर बैठकर
बच्चों को बुलाती है
सन्नाटों के भीड़ में
उनको न देखकर
कूद फांद भागकर
की है ढूँढाई

धूप एक नन्हीं सी
धरती पर आई

स्कूल की कोठरी में
पोथियों का ढेर है
अनगिन है सी एफ एल
दिखता अबेर है
नन्हें नन्हें हाथों से
कागज़ पर रंग रहे
सूरज की रौशनी
देख देख धूप को
आती रुलाई

धूप एक नन्हीं सी
धरती पर आई

खाट पर सास है
कुर्सी पर ससुर जी
अंदर के हीटर में
सीटर पर बहूजी
एप को खोलकर
दुनिया से बतियाई
दिखती नहीं कहीं
ननद भौजाई

धूप एक नन्हीं सी
धरती पर आई

चावल हैं चुने हुए
दाल भी भुने हुए
लहसुन की कलियाँ
छीलकर मँगवाई
कटे हुए कटहल में
मसालों के चूरन से
कूकर में झटपट
सब्जी बनाई
देती है बार बार
थकन की दुहाई

धूप एक नन्हीं सी
धरती पर आई
--ऋता शेखर "मधु"

न्यु इयर

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न्यु इयर

माँ के स्वर्गवास के बाद अवनि को मैके जाने का मन नहीं होता था| फोन पर भाई भाभी हमेशा उसे बुलाते किन्तु वह उदासीन भाव से मना कर देती| उसे लगता कि अब सभी भाई बहनों का अपना अपना परिवार है तो वह किसी को डिस्टर्ब करने क्यों जाए| उस दिन भी फोन पर भाई से बातें हो रही थीं| भाई ने बात बात में बताया कि कुहू को पढ़ने में मन नहीं लगता है| हर समय या तो फोन पर बातें करती रहती है या फिर फेसबुक में उलझी रहती है| वह कैसे दसवीं की बोर्ड परीक्षा निकाल पाएगी|’
‘’तो फोन क्यों दे रखा है उसे’’ अवनि ने एकाएक बोला था|
‘क्या करूँ, दोस्तों के फोन आते हैं| मना करने पर पढ़ना छोड़कर बैठी रहती है,’’ भाई की आवाज में विवशता झलक रही थी| उसके बाद उसने फोन रख दिया|


“कुहू, अवनि बुआ का फोन आया है, वह आ रही हैं अभी एक घंटे में| उन्होंने कहा है कि वह नया साल हमलोगों के साथ ही मनाएँगी,” मम्मी बोल रही थी|
“अच्छा”, पल भर को कुहू का चेहरा प्रफुल्लित हुआ फिर बुझ गया|
‘वह भी तो पढ़ने का ही उपदेश देंगी ”, मन ही मन सोचकर वह फिर से मोबाइल लेकर बैठ गई|

बुआ के आने पर वह प्रणाम करके कमरे मे चली गई| परदे की ओट से अवनि ने देखा कि वह मोबाइल गेम खेल रही थी|
डिनर के लिए सब साथ ही बैठे|
‘अरे, तुमलोगों ने टीवी क्यों बन्द करके रखा हुआ है| कोई हास्य धारावाहिक लगाओ कुहू,” अवनि सहमे से माहौल को हल्का करना चाहती थी|
“वही तो“ कुहू की आवाज़ थोड़ी तल्ख़ थी|
भाई भाभी ने कुछ नहीं कहा| हास्य धारावाहिक देखते हुए सब खाना खाने लगे| धीरे धीरे माहौल हल्का हुआ| कुहू का तनावपूर्ण चेहरा फूल के समान खिल गया|
“कुहू बेटा, तुम्हारी परीक्षा कब से है?”अवनि ने अब पूछना उचित समझा|
“फर्स्ट मार्च से” कुहू के नजरें नीचे करके कहा|
“अच्छा, मतलब अगले साल”, हँसते हुए अवनि ने कहा|
“क्या बुआ...अगला साल आने में कुछ घंटे ही तो बचे है”, खिलखिला पड़ी कुहू|
“ हाँ, उसके पहले ही पढ़ाई पढ़ाई की रट लगाना बुरी बात है| खूब मस्ती करो, फोन पर बातें करो, वीडियो गेम खेलो, टीवी देखो, है न कुहू”, अवनि कुहू की आँखों में झाँकती हुई बोली|
“हाँ बुआ, ये सब करने से मेरा मूड फ्रेश हो जाता है और मैं ज्यादा मन लगाकर पढ़ पाती हूँ”, कुहू ने दिल की बात कही| भाई भाभी सिर झुकाए सुन रहे थे| वे अब समझ पा रहे थे कि उन्होंने कुहू पर जरूरत से ज्यादा पाबंदी लगाई हुई थी|

बहुत दिनों के बाद आज की सुबह कुहू को बहुत प्यारी लग रही थी|
“हैप्पी न्यु इयर बुआ’’ उठते ही कुहू ने अवनी को विश किया|
“हैप्पी न्यु इयर मेरी प्यारी कुहू’, उतनी ही गर्मजोशी से अवनि ने कहा और कुहू को गले से लगा लिया|
पीछे भाई खड़ा था जिसके चेहरे पर भी प्रसन्नता झलक रही थी|
“कुहू, कुछ देर मेरे पास बैठो”, अवनि ने चाय पीते हुए कहा|
“नहीं बुआ, इसी साल मेरी परीक्षा है और मैं समय नहीं बरबाद करना चाहती| मैं पढ़ने जा रही किन्तु आप अभी नहीं जाना बुआ, मुझे आपसे ढेर सारी बातें करनी हैं”, अवनि को एक चुम्मी देकर कुहू चली गई|
‘आपके आने से कुहू बहुत खुश है दीदी, वह आज खुद पढ़ने चली गई , यह तो चमत्कार जैसा लग रहा|’ भाभी की बात सुनकर अवनि मुस्कुरा दी|
“होता है ऐसा, बच्चे कभी कभी माता पिता का उपदेश सुनते सुनते ऊब जाते है और वही बात कोई और कहे तो समझ जाते हैं”, अवनि यह कहते हुए मन ही मन सोच रही थी कि मायके नहीं आने का उसका कदम कितना ग़ल़त था| माँ के बाद सबको देखने की जिम्मेदारी उसकी भी बनती थी|
-ऋता शेखर ‘मधु’
15/12/17

राह...

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राह....

राह अनगिन हैं जग में
राह का ले लो संज्ञान

कहीं राह सीधी सरल
कहीं वक्र बन जाती
कहीं पर्वत कहीं खाई
कभी नदिया में समाती
सभी पार कर लोगे बंधु
त्याग चलो अभिमान

कहीं मिलेंगे सुमन राह में
कहीं कंटक वन पाओगे
कहीं है मुनियों का बसेरा
कहीं चंबल से घबराओगे
धैर्य जरा रख लेना बंधु
खिलेगी होठों पर मुस्कान

दोराहे होते हैं मुश्किल
रुक कर सोचो पल दो पल
स्वविवेक का काम वहाँ है
अवश्य मिलेगा कोई हल
नम्र नीति अपनाना बंधु
जरा लगाकर ध्यान

राह अनगिन हैं जग में
राह का ले लो संज्ञान
--ऋता शेखर 'मधु'

सरकारी नौकरी के लिए रुझान-एक रिपोर्ट

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पढ़ाई पूरी करने के बाद जब रोजी रोटी की बात आती है तो हमारे पास तीन विकल्प होते हैं|
1बहुराष्ट्रीय कम्पनी/प्राइवेट की नौकरी
2.सरकारी नौकरी
3.स्वरोजगार
फेसबुक पर मैंने एक वोटिंग कराई| वोटिंग सिर्फ एक दिन के लिए थी और सिर्फ मित्रसूची में शामिल मित्रों के लिए थी| जो उस वक्त ऑनलाइन हो पाए उन्होंने सहर्ष भाग लिया| वोटिंग का उद्येश्य यह जानना था कि भारत में किन नौकरियों के लिए क्या रुझान है | जितने लोगों ने और जिन लोगों ने अपने मत और मंतव्य दिये उसका एक ब्योरा प्रस्तुत कर रही हूँ|

कुल 56 लोगों की वोटिंग के आधार पर जो प्रतिशत निकले उनके अनुसार...

1बहुराष्ट्रीय कम्पनी/प्राइवेट की नौकरी—20%

2.सरकारी नौकरी..66%

3.स्वरोजगार..13%

1.सबसे पहले बात करते हैं बहुराष्ट्रीय कम्पनी की...

इतिहास-- भारत में विदेशी कम्पनियाँ तीन तरीके से कम कर रही है। पहला, सीधे अपनी शाखायें स्थापित करके, दूसरा अपनी सहायक कम्पनियों के माध्यम से, तीसरा देश की अन्य कम्पनियों के साथ साझेदार कम्पनी के रूप में।

8 विशालकाय ब्रिटिश कम्पनियाँ सन् 1853 से ही ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा भारत में घुसना शुरू हो गयी थीं।

आजादी के पूर्व सन् 1940 में 55 विदेशी कम्पनियाँ देश में सीधे कार्यरत थीं। आजादी के बाद सन् 1952 में किये गये एक सर्वेक्षण के अनुसार ब्रिटेन की 8 विशालकाय कम्पनियों के सीधे नियन्त्रण में 701 कम्पनियाँ भारत में व्यापार कर रही थीं। सन् 1972 के अन्त तक देश में कुल 740 विदेशी कम्पनियाँ थीं। जिनमें से 538 अपनी शाखायें खोलकर व 202 अपनी सहायक कम्पनियों के रूप में काम कर रही थीं। इनमें सबसे अधिक कम्पनियाँ ब्रिटेन की थीं। लेकिन आज सबसे अधिक कम्पनियाँ अमेरिका की हैं। समझौते के अन्तर्गत काम करने वाली सबसे अधिक कम्पनियाँ जर्मनी की हैं। 1977 में विदेशी कम्पनियों की संख्या 1136 हो गयी।

जून 1995 तक प्राप्त आंकड़ों के अनुसार 3500 से कुछ अधिक विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ, अपनी शाखाओं या सहायक कम्पनियों के रूप में देश में घुसकर व्यापार कर रही हैं। 20,000 से अधिक विदेशी समझौते देश में चल रहे हैं।

लाभ-जब भारत बेरोजगारी से जूझ रहा था तब ये विदेशी कम्पनियों ने संजीवनी का काम किया| नौकरी के कई विकल्प उन्होंने दिए| सैलरी आकर्षक थी| समय की पाबंदी भी नहीं थी...जब मन करे ऑफिस जाओ, सिर्फ काम के घंटे पूरे होने चाहिए|

स्वतंत्रता भरा जीवन उन्हें अच्छा लगा| समय पर आत्मनिर्भर हुए|

विदेश जाने का मौका मिला|

श्रम की कद्र होती है

हानि- बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने भारत में महानगरों को अपना केंद्र बनाया जिसके फलस्वरूप बच्चे नौकरी करने के लिए अपने घर परिवार से दूर होने लगे| कई परम्पराएँ और संस्कार अनजाने ही विलुप्त होते चले गए| बाहर का पैकेज़्ड फुड खाकर उनके सेहत पर भी असर आने लगा| किराया का व्यापार बढ़ाने लगा जहाँ नौकरी वाले बच्चे एक साथ शेयर वाले घर लेने को मजबूर हो जाते|

हर वर्ष फायर किए जाते हैं कर्मचारी...यदि काम में

बुज़ुर्ग दम्पति अपने अपने शहरों में अकेले होते चले गये| छोटे बच्चे दादी-दादी और नाना-नानी से अलग हो गए |

वोट देने वाले मित्र---

1.Nivedita srivastava जी

2.Abhishek Jain जी

3.Rupa Madhav जी

4.Pawan Jain जी

5.Rochika Sharma जी

6.Arun Singh Ruhela जी

7.Sandeep Kumar जी

8.महिमा श्रीवास्तव ‘वर्मा’ जी

9.Ankit Khare जी

10.Udan Tashtari जी

11.Kanchan Aparajita जी

मित्रों के विचार उनके ही शब्दों में---
Arun Singh Ruhela- मैं मार्केटिंग मैनेजमेंट पढ़ाता हूँ , साथ ही इंजीनिरिंग के बच्चों को स्वरोजगार के लिए स्पेशल कोर्स (EDP) कराता हूँ ! अच्छी कम्पनी में प्लेस्मेंट हो तो शुरुवाती सालों में अच्छा है, बालक हीरा बन के निखरता है और दुनिया भर में उसके हुनर की माँग होती है !
Pawan Jain- फायर काम चोरों को,काम करो अच्छे पैसे लो,पर सरकारी नोकरी में काम न करने की आदत पड़ जाती ओर आपके काम की कोई कीमत नहीं।सरकारी नोकरी में कुव्यवस्था के जाल से मुक्ति नहीं।पर अब परिवर्तन हो रहा है।
Poornima Sharma- मुझे तो सरकारी नौकरी मिल गयी थी,लेकिन मेरे दोनों बेटों को सरकारी जॉब मिलने तक मल्टीनेशनल में काम करना पड़ा।पैसे कारण नहीं था,कारण था अनुभव प्राप्त करना।
महिमा 'श्रीवास्तव'वर्मा-निश्चित रूप से मल्टीनेशनल कंपनी में,, हमारे अनुसार ये इसलिए कि मेहनत अब दोनों ही तरह की नौकरी में है तो पहला कारण ये है कि आरक्षण के कारण कोई नुकसान नहीं होगा किसी योग्य और परिश्रमी व्यक्ति का. ,,दूसरा ये कि जरुरत के वक़्त नौकरी छोड़ सकते हैं,, बाद में मनचाहे वक़्त पर आप में योग्यता है तो फिर से मिल ही जाएगी.

2. सरकारी नौकरी—

वेतनमान और सीनियरिटी के अनुसार पगार

सुरक्षित भविष्य

किसी हादसा दुर्घटन में मृत सरकारी व्यक्ति के परिवार के एक सदस्य को नौकरी

ताउम्र पेंशन

काम से निकाले जाने का खतरा नगण्य

वोट देने वाले मित्र-

1.Mahfooz Ali जी

2.Vibha rani srivastava जी

3.Rashmi Prabha जी

4.रेखा श्रीवास्तव जी

5.Poornima Sharma जी

6.Anjali Agraval जी

7.सुश्री इंदु सिंह जी

8.Rekha Joshi जी

9.Kusum Shukla जी

10.Sanjay Kumar जी

11.Sandhya Tiwari जी

12.Priyanka pandey जी

13.Daisy jaiswal जी

14.Deepshikha sagar जी

15.Jagdish Vyom जी

16.Upasna Siag जी

17Dilbag virk जी

18.Manish Tyagi जी

19.Pooja Singh जी

20.मधु जैन जी

21.Vanphool Sharma Dadhich जी

22.धरणीधर मणि त्रिपाठी जी

23.Neilam Mahajan जी

24.कुमार गौरव अजीतेन्दु जी

25.Asha Singh जी

26.Pradyumn Sharma जी

27.Vinay Chaudhary जी

28.Ashok Yadav जी

29.Jyotsna Saxena जी

30.Mridula Pradhan जी

31.अंकिता कुलश्रेष्ठ जी

32. अराधना अराधना जी

33.Geeta Verma जी

34.Ratna Verma जी

35.Dheerendra Singh Bhadauriya जी

36. Meenakshi TapanSharma जी

सरकारी नौकरी के लिए मित्रों के विचार
Sadhana Agnihotri -सरकारी नौकरी सिर्फ़ आरक्षित वर्ग को ही मिलती है ,
ऐसे में अनारक्षित वर्ग प्राईवेट नौकरी करने को मजबूर है ।।
Dheerendra Singh Bhadauriya- kisi ki Naukri karna Mujhe pasand hai nhi. agar Karna pade to sarkari naukri karunga.

3.
Self Employment-स्वरोजगार
वोट देने वाले मित्र
1.Ashish Rai जी

2.Shashi Bansal जी

3.Shalini Srivastava जी

4.Mukesh Sharma जी

5.Sadhna Agnihotri जी

6.Sandhya Sharma जी

7.पूर्णिमा वर्मन जी

कुछ कह नहीं सकते
सीमा भाटिया


इस बारे में मित्रों के विचार उनके ही शब्दों में साझा कर रही हूँ|
Ashish Rai-उ वाली कहावत सुनी होगी, उत्तम खेती मध्यम बान , निषिध चाकरी भीख निदान।

Mukesh Sharma- वो व्यक्ति जिन्हें अपने कार्य कौशल तथा बुद्धिमता पर पूर्ण विश्वास है और अच्छा काम करते हुए लगातार आगे बढ़ने की ललक है, उन्हें निजी क्षेत्र ही भाता है । राजकीय उपक्रमों में आपको तरह-तरह के अड़ंगे लगाकर कार्य नहीं करने दिया जाता, क्योंकि ज्यादातर लोग काम करते नहीं है और किसी को करने भी नहीं देते । ऐसे लोगों ने बरसों बरस से सारी व्यवस्थाओ को घुन लगा दिया है और इन स्थितियों में कार्यशील व्यक्ति का दम घुटने लगता है एंवम वह स्वयं को असहाय सा महसूस करता है ।मैं स्वरोजगार को ही महत्ता दूँगा । इससे ना केवल आप सक्रिय ही रह पाते है, वरन अन्य लोगों के लिए भी रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने की क्षमताओं में इज़ाफ़ा करते है ।
Sandhya Sharma-मैं भी स्वरोजगार को ही प्राथमिकता देने पसंद करूँगी, अपने साथ साथ अनेकों को रोजगार के अवसर देने का सामर्थ्य भी प्राप्त होता है।
पूर्णिमा वर्मन-स्वरोजगार... अपने हाथ जगन्नाथ और साथ ही साथ देश की सेवा और देश का निर्माण |
Udan Tashtariकेरियर में और जीवन में हर वक्त एक चैलेंज जरुरी है कुछ भी बेहतर करने के लिए|
Mani Ben Dwivedi-मल्टी नेशनल नौकरी तो लोग तो मजबूरी में पसंद कर रहे है,,....सरकारी नौकरी में तो जिंदगी और टैलेंट सब आरक्षण के भेट चढ़ जा रहे हैं------मैं खुद भुक्तभोगी हूँ।मल्टीनेशनल में कम से आपकी योग्यता का तो क़दर होता है।
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ब्लॉगर मित्रों से अनुरोध है कि आप भी अपनी कीमती राय यहाँ कमेंट में दें|
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नए गगन में अब लो पंछी, अपने पंख पसार||

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सरसी छंद -- बढ़े देश का मान.....

नया साल लेकर आया है, पीत सुमन के हार|
नए गगन में अब लो पंछी, अपने पंख पसार||
हम बसंत के मस्त पवन में, गाएँ अपना गान|
झंडा ऊँचा रहे हमारा, बढ़े देश का मान||1||


हिम की नदिया जब पिघलेगी, फेनिल होगी धार|
सुर की देवी फिर छेड़ेंगी, निज वीणा के तार||
नीला नीला अम्बर होगा, होंगे प्रेम पराग |
मेघ नेह का जब उमड़ेगा, उमग उठेगा फाग ||2||


गले मिलेंगे भाई भाई, मिट जाएँगे द्वेष |
चैत्र माह में फिर पाएगा, अपना सूरज मेष ||
कोयलिया राग सुनाएगी, महक उठेंगे बौर |
फूलों की डोली लाएँगे, ऋतुओं के सिरमौर||3||


नारी मर्यादा लौटेगी, खुशियाँ होंगी पास|
जात पात का भेद न होगा, ऐसा है विश्वास ||
मानवता की चौखट पर, सुरभित होगा हर्ष |
दिल से दिल के तार बँधेंगे, आएगा नव वर्ष ||4||

*-ऋता शेखर ‘मधु’-*

सभी ब्लॉगर मित्रों को नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ !!

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सभी ब्लॉगर मित्रों को नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ !!

     ब्लॉग पर जितने भी मित्र हैं वो बहुत से बहुत तो बारह या तेरह वर्षों से ब्लॉग पर होंगे| ब्लॉग ने मन की बात कहने का सहज सरल रास्ता दिया| जो भावनाएँ या बातें पहले मन में घुटकर रह जाती थीं वो ब्लॉग के स्क्रीन पर उतरने लगी| जिन्हें जो फ़ील्ड पसंद था उसके अनुसार सबने ब्लॉग बनाएँ| कहानी, कविता, खेलकूद, समाचार...इस तरह के ब्लॉग बने| बलॉगर .कॉम ने ब्लॉग को फ़ौलो करने की सुविधा दी जिससे हम अपनी पसंद के लेखक और ब्लॉग्स तक पहुँचने लगे| शुरुआत के दिनों में हम सभी बहुत सक्रियता से एक दूसरे के ब्लॉग पर कमेंट दिया करते थे जो अब रास्ता बदलकर फेसबुक की ओर मुड़ गया है|  मित्रों...फेसबुक पर त्वरित कमेंट्स का लालच रहता है...पर हमें अपना पुरानी डायरी नहीं भूलनी चाहिए| नए वर्ष में हमे यह शपथ लेना चाहिए कि जितना समय हम फेसबुक पर बिताते हैं उसका आधा ब्लॉग पढ़ने में बिताएँ और वहाँ भी अपने विचार देकर संजीवनी का काम करें|

अभी भी जो ब्लॉग एग्रीगेटर सक्रिय हैं और नियमित रूप से लिंक लगाते हैं उन सभी को धन्यवाद देना चाहती हूँ जिनमें चर्चामंच, पाँच लिंकों का आनंद, ब्लॉग बुलेटिन आदि हैं| 

उनसभी मित्रों का दिल से आभार है जो कमेंट के जरिए उत्साह बढ़ा जाते हैं| पुराने ब्लॉगर मित्रों में आ० संगीता दी, रश्मिप्रभा दी,अनुलता राज नायर जी, मोनिका शर्मा जी, प्रियंका जी,अर्चना चावजी, दिलबाग विर्क जी, रूपचंद्र शास्त्री सर, सुशील जोशी जी, देवेन्द्र कुमार पाणडेय जी जो बेचैन आत्मा के नाम से लिखते थे, दिगम्बर नासवा जी, दिनेशचन्द्र गुप्ता सर, ओंकार जी,नीतू ठाकुर जी, ध्रुव सिंह जी, सुधा देवरानी जी, सदा जी, गगन शर्मा जी, पम्मी जी, अनु लागुरी जी, अमित जैन मौलिक जी,अभिषेक कुमार, नवीन जी......कुछ नाम छूट रहे.......आप सभी को बहुत बहुत धन्यवाद|

नव वर्ष में आप सभी को मनचाही खुशियाँ मिलें...हम सभी का साथ बना रहे , ईश्वर से यही प्रार्थना है|
-ऋता शेखर 'मधु'

नए साल पर....

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यह नवगीत प्रतिष्ठित ई-पत्रिका "अनुभूति"के नववर्ष विशेषांक पर प्रकाशित है...यहाँ क्लिक करें |

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नए साल पर....
फिर से रमिया चलो गाँव में

लेकर अपनी टोली
छोड़ चलो अब महानगर की
चिकनी चुपड़ी बोली

नए साल पर हम लीपेंगे
चौखट गोबर वाली
अँगना में खटिया के ऊपर
छाँव तरेंगन वाली
श्रीचरणों की छाप लगाकर
काढ़ेंगे रंगोली

फिर से रमिया चलो गाँव में
लेकर अपनी टोली
बरगद की दाढ़ी पर चढ़कर
फिर झूला झूलेंगे
पनघट पर जब घट भर लेंगे
हर झगड़ा भूलेंगे
बीच दोपहर में खेलेंगे
गिल्ली डंडा गोली

फिर से रमिया चलो गाँव में
लेकर अपनी टोली

दिन भर मोबाइल को लेकर
कोई नहीं हिलता है
हर सुविधा के बीच कहें सब
समय नहीं मिलता हैं
धींगामस्ती को जी चाहे
सखियों संग ठिठोली

फिर से रमिया चलो गाँव में
लेकर अपनी टोली

अब गाँव में सभी वर्जना
हम मिलकर तोड़ेंगे
शिक्षा की नव ज्योत जलाकर
हर नारी को जोड़ेंगे
सुता जन्म पर हम डालेंगे
सबके माथे रोली

फिर से रमिया चलो गाँव में
लेकर अपनी टोली
_ऋता शेखर ‘मधु’

संक्रांति की सौगात

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संक्रांति की सौगात
मकर संक्रांति के दिन सुषमा ने नहा धोकर तिलवा और गुड़ चढ़ाकर विष्णु पूजन किया| सास, ससुर, देवर, ननद पति,जेठ, जेठानी सबको प्रसाद दे आई| यह सब करते हुए वह अनमयस्क सी लग रही थी| सास की अनुभवी आँखों ने समझ लिया था उसकी उदासी का कारण| कल जबसे बड़ी बहु के मैके से मकर संक्राति की सौगात आई थी तब से सुषमा के चेहरे पर एक उदासी तिर गई थी| अभी चार महीने पहले ही उसकी माँ का स्वर्गवास हुआ था| पहले सुषमा के घर से भी मकर संक्रांति के उपहार आते थे| उसके शादीशुदा भाई को बहनों से कोई खास लगाव नहीं था इसलिए किसी सौगात की उम्मीद भी न थी|

‘सुषमा, खाना के बाद हमलोग छत पर पतंग उड़ाने जाएँगे| तुम भी तैयार हो जाना उस समय, पतंग खूब ऊँचे तक उड़ा लेती हो तुम’, सास की आवाज़ आई|

‘मगर माँजी, मेरी तबियत ठीक नहीं लग रही| शायद तैयार न हो पाऊँ’, सुषमा ने धीमे से कहा|

‘मन ठीक हो जाए तो आ जाना,’ कहकर सासू माँ अपने कमरे में चली गईं और जाते जाते सुषमा के पति को भी आने को कहा|

दोपहर कीं नींद सुषमा की आँखों को बोझिल बना रही थी| तभी डोरबेल बजी| कुछ पल सुषमा ने इन्तेज़ार किया कि कोई खोलेगा किन्तु शायद सब सो गए थे| सुषमा ने दरवाजा खोला| दरवाजे पर कोई पार्सल लेकर आया था| सुषमा ने देखा कि पैकेट पर उसका ही नाम था| उसे आश्चर्य हुआ तो जल्दी से उसने भेजने वाले का नाम देखा|

‘महेश वर्मा’ खुशी से लगभग चीख पड़ी सुषमा| पार्सल रिसीव किया और पैकेट खोलने लगी| तब तक सास और पति वहाँ आ गए थे|

‘ये क्या है, किसने भेजा’ लगभग एक साथ सास और पति पूछ बैठे|

‘भइया ने संक्रांति गिफ़्ट भेजा है’ चहकती हुई वह बोली,मैं पतंग उड़ाने छत पर अवश्य जाऊँगी|’’

सास और पति एक दूसरे की ओर देखकर मुस्कुरा दिए|


आधे घंटे बाद सब लोग तैयार हो चुके थे| तभी फिर से डोरबेल बजी|

“कौन होगा”, ये सोचती हुई सुषमा देवाजे पर गई| दरवाजा खोलते ही उसकी आँखें विस्फरित रह गईं|

‘भइया-भाभी, आप दोनो” अविश्वास से उसने कहा|

“और नहीं तो क्या, संक्रांति की सौगात ननद रानी को देना था न” कहते हुए भाभी ने सुषमा के हाथों में पैकेट पकड़ाया|

‘तो अभी जो पार्सल आया वो किसने भेजा’ सोचती हुई सुषमा भाई भाभी के साथ कमरे की ओर बढ़ी|

वहाँ सास और पति अर्थपूर्ण ढ़ग से मुस्कुरा रहे थे|

‘अच्छा, तो ये माँ-बेटे की मिलीभगत थी ’ सोचती हुई वह भी मुस्कुरा दी|

--ऋता शेखर ‘मधु’

स्वप्नलोक

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स्वप्नलोक....


बचपन का वह स्वप्नलोक अब विस्मृत होता जाता है
जलपरियाँ जादुई समंदर सन्नाटे में खोता जाता है

सीप वहाँ थे रंग बिरंगे मीन का नटखट खेल था
सजा सजीला राज भवन जहाँ तिलस्म का मेल था

सजा सजीला एक कुँवर बेमिसाल इक राजकुमारी
प्रीत कँवल खिलते चुपके से छाती दोनो पर खुमारी

हस्तक दे दे हँसते थे वो इक दूजे की करें प्रतिष्ठा
प्रेम भरी आँखों में, दिखती रहती सच्ची निष्ठा

दूर कहीं से देखा करता सींगों वाला दैत्य भयानक
अशांति का दूत बड़ा वह बन जाता था खलनायक

एक दिवस ऐसा भी आया विपत्ति बन वह मँडराया
शहजादा बनकर आया और परी कुमारी को भरमाया

पल भर बीते तभी वहाँ पर राजकुमार की आई सवारी
विस्मित रह गई भोली परियाँ, थी अवाक वह राजकुमारी
*
ओह, जुदा होकर कैसे जीएँगे, नींद में वह धीरे से बोली
कौन जुदा होता है मुनिया, पूछी रही सखियों की टोली

झट उठ बैठी बिस्तर पर, अपनी बोझिल पलकें खोली
रब ऐसे सपने न देना जिसमें कोई, किसी की तोड़े डोली

इस प्रलाप से जन्म ले रही थी, कहीं पर एक कहानी
जब पुरातन वह हो जाएगी, इसे कहेगी बनकर नानी

ऋता शेखर ‘मधु’

बिसात जीवन की

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देखो बंधु बाँधवों,
जिंदगी ने बिछायी है
बिसात शतरंज की
बिखरायी है उसने
मोहरें भाव-पुंज की
श्वेत-श्याम खानों के संग
दिख जाते सुख-दुःख के रंग
प्यादे बनते सोच हमारी
सीधी राह पर चलते हुए
सरल मना को किश्ती प्यारी
तीव्र चतुर दलबदलू ही
करते हैं घोड़ों की सवारी
व्यंग्य वाण में माहिर की
तिरछी चाल विशप कटारी
समयानुकूल वजीर बने जो
चाणक्य नीति के वो पिटारी
सबकी चालें सहता हुआ
बादशाह है हृदय बेचारा
नाप रहा उल्फ़त से पग
कैसे  विजय मिले दोबारा
विषयासक्त अनुरागी को
यह टकराव बना रहेगा
कुछ भी कर लो जेहनवालों
अज्ञानी से ठना रहेगा
पूर्वाग्रह के पिंजरे में बैठे
अजनबी  क्षितिज पर दिखते
हल्की सी भी ठेस लगे तो
यातना के नज़्म लिखते
ऐ जिंदगी,
छलिया बन तूने
हम सबको है नाच नचाया
बाँध के धागे भाव पगे
तूने सबसे रास रचाया
पर समझ लेना यह बात
मात हमें न दे पाएगी
मनु के अंतर्मन की शक्ति
तेरा हर घात सह जाएगी|
चालें चाहे हों जितनी शतरंजी
बस एक निवेदन करती हूँ
उनकी खुशियाँ खोने न देना
जिन रिश्तों पर मरती हूँ|
-ऋता शेखर ‘मधु’

आत्मबोध जागृत रहे, कर में हो संघर्ष--दोहे

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जब छाए मन व्योम पर, पीर घटा घनघोर|
समझो लेखन बढ़ चला, इंद्रधनुष की ओर||

दिशा हवा की मोड़ते, हिम से भरे पहाड़।
हिम्मत की तलवार से, कटते बाधा बाड़।।

खुशी शोक की रागिनी, खूब दिखाते प्रीत।
जीवन के सुर ताल पर, गाये जा तू गीत।।

शब्द शब्द के मोल हैं, शब्द शब्द के बोल।
मधुरिम बात विचार से, शब्द हुए अनमोल||

नफऱत कभी न कीजिये, ना कीजे अभिमान।
घुन समान खोखल करे, मन के सारे ज्ञान।।

हरे भरे मन खेत पर, उगे ज्ञान का धान।
छल के खरपतवार से, कुंठित होता मान।।

जग के माया मोह में, आते खाली हाथ।
सखा बना लो पुण्य को, वही चलेंगे साथ।।

आत्मबोध जागृत रहे, कर में हो संघर्ष|
आत्मशक्ति लिखती रही, जीवन का उत्कर्ष||

भाई है इक छोर पर, बहना दूजी ओर|
ये मीलों की दूरियाँ, पाटें रेशम डोर||

लिखने को तो सब लिखें, रचते हैं कुछ चंद।
छोड़े गहरी छाप जो, वही है प्रेमचंद।।

ज्ञानी ध्यानी नम्र हो, फिर भी करना शोध।
छीने आधी बुद्धि को, तेरा अपना क्रोध ।।

बात बात पर दे रहे, फूलों की सौगंध।
बगिया मुरझाने लगी, खोकर अपनी गंध।

बहु रंगों को धारता, कृष्ण मयूरी पंख।
श्याम दरस की आस से , विकल बजावे शंख।।

अफ़रातफ़री से कहाँ,होते अच्छे काम।
सही समय पर ही लगे,मीठे मीठे आम||
--ऋता शेखर 'मधु'

गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएँ !!

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करती समर्पित काव्य उनको, देश हित में जो डटे|
वे वेदना सहते विरह की, संगिनी से हैं कटे ||


दिल में बसा के प्रेम तेरा, हर घड़ी वह राह तके|
लाली अरुण या अस्त की हो, नैन उसके नहिं थके||

जब देश की सीमा पुकारे, दूर हो सरहद कहीं|
इतना समझ लो प्यार उसका, राह का बाधक नहीं||

तुम हो बहादुर, ओ सिपाही, याद उसकी ले चलो|
संबल वही है जिंदगी का, साथ में फूलो फलो||

आशा, कवच बन कर रहेगी, बात यह बांधो गिरह|
तुम लौट आना एक दिन तब, भूल जाएगी विरह|

फिर मांग में भर के सितारे, वह सजी तेरे लिए|
अर्पण करेगी प्रीत अपना, आँख में भर के दिए||

ले लो दुआएँ इस जहाँ की, भूल जाओ पीर को|
आबाद हो संसार तेरा, अंक भर लो हीर को||

जब जब तिरंगा आसमाँ में, शान की गाथा लिखे|
हम सब नमन करते रहेंगे, वीर, तुम मन में दिखे ||
....................ऋता शेखर 'मधु'

शापित फल्गु-लघुकथा

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शापित फल्गु

"माँ, यहाँ तो रेत ही रेत है, फिर इसे नदी क्यों कहते हैं।"रेत पर बैठी मैनेजमेंट पढ़ रही प्रज्ञा पूछ रही थी।

"बेटे, यहाँ गड्ढा करोगी तो पानी निकल आएगा। कहते हैं इस फल्गु नदी को सीता माता ने श्राप दिया था । नदी ने सीता माता के सच की गवाही न देकर गुप्त रखा इसलिए नदी का जल भी गुप्त हो गया।"

"अच्छा! पर कौन सा सच माँ ,"प्रज्ञा ने विस्मय से देखते हुए पूछा।

"जब श्रीराम, लक्ष्मण और सीता वनवास पर थे तभी राजा दशरथ की मृत्यु हो गयी थी। हिन्दू रिवाजों के अनुसार वे तीनों गयाधाम में राजा दशरथ की आत्मा की मोक्षप्राप्ति के लिए तर्पण करने गए। समय निकला जा रहा था किन्तु राम और लक्ष्मण सामान लेकर लौटे नहीं थे। तब दशरथ की आत्मा ने सीता से तर्पण की माँग की। सीता ने श्वसुर के लिए बालू का पिंड बनाकर दान दिया और नदी को गवाह बनाया। राम के आने पर सीता ने सारी बात बताई किन्तु राम को विश्वास नहीं हुआ। सीता ने नदी से सच बताने को कहा पर वह चुप रह गयी। तब दशरथ की आत्मा ने आकर सच बताया। राम को विश्वास हो गया। किन्तु नदी के व्यवहार पर सीता ने क्रोधित होकर श्राप दिया।"

"बहुओं के नसीब में हमेशा अविश्वास ही क्यों रहता है माँ ? भाभी दिनभर आपकी और पापा की कितनी सेवा करती हैं। फिर भी हर शाम उनको भैया के संशय भरे सवालों का जवाब देना पड़ता है। जब एक मृत आत्मा बहु के तर्पण को स्वीकार कर उसका साथ दे सकती है तो जीवित आत्माएं क्यों चुप रह रह जाती हैं माँ ? अब मैं भाभी की आत्मा को दुःखी नहीं होने दूँगी। मुझे सच की गवाही देनी होगी माँ। मैं फल्गु नहीं बनूँगी।"

-ऋता शेखर 'मधु'

मैं वसुन्धरा

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मैं वसुन्धरा
खिले पलाशों से मिल मिल कर
खुद बासंती होती जाऊँ

सरस फाग के गीत सुहाने
अलि पपीहा आए सुनाने
पारिजात भर देता दामन
मस्त हवा ने गाए तराने

पीत रंग सरसो से लेकर
मीठे सपनो को ले आऊँ

ग्रंथों में न होगी पुरानी
विरह मिलन की कथा कहानी
शब्दों में भी जान आ गई
जब मौसम ने की नादानी

मसि सागर से माणिक चुन चुन
गीत बनी पल पल इतराऊँ

भोर सांध्य नभ है नारंगी
कलरव में बजती सारंगी
भाँति भाँति की खुश्बू लेकर
मुकुलित पुष्प हुए बहुरंगी

तितली के सुन्दर पंखों से
परागों के गुलाल उड़ाऊँ

उल्लास उजास गुण होली के
बीत गये अब दिन टोली के
द्वेष दंभ कालिख ले आये
मन सूना बिन रंगोली के

श्वेत श्याम होते नैनों से
कैसे सबका मन बहलाऊँ

अंतरजाल पर होली खेलें
लिखते हैं मुख से ना बोलें
शुभसंदेशों की लगी झड़ी
इस घर से उस घर में ठेलें

नए जमाने की धारा में
आभासी बन कर सकुचाऊँ

-ऋता शेखर ‘मधु’

वक्त का बदलाव

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वक्त का बदलाव
"जहाँ देखो सिर्फ बेटियों के लिए ही स्लोगन बन रहे।
मेरी बेटी मेरा अभिमान।
बेटी पढ़ाओ बेटी बढाओ।
बेटियों से संसार है....हुंह"
ननद रानी की बातें सुनकर सुहासिनी मुस्कुरा रही थी।
"तो इसमें दिक्कत क्या है जीजी। बेटियों को तो बढ़ावा मिलना ही चाहिए।"
"पर इस तरह के नारे बनाने की क्या जरूरत है। क्या बेटे वाले अपने बेटों पर अभिमान नहीं करते।"अब सुहासिनी दो बेटों वाली नन्दरानी का दर्द समझ रही थी।
"और बेटा या बेटी पैदा करना अपने हाथ में है क्या"जीजी अब भी बोले जा रही थीं।
"यही बात सदियों से कही जा रही। पर कहने वाले बदल गए। है न जीजी"सुहासिनी को वो दिन याद आ गया जब दूसरी बिटिया के जन्म पर बुरा सा मुँह बनाकर जीजी ने कहा था,"फिर से बेटी"।
जीजी को भी शायद वही बात याद आयी थी इसलिए नजरें बचते हुए वहाँ से दूसरे कमरे में चली गईं।
-ऋता शेखर "मधु"
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